जिस तरह ज्यादातर कंपनियों के आईपीओ (शुरुआती पब्लिक ऑफर) कुछ ही समय बाद अपने इश्यू मूल्य से बहुत नीचे खिसक जाते हैं और लिस्टिंग के दिन में उनमे जबरदस्त ऊंच-नीच होती है, उसने पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी को आखिरकार कुछ ठोस कदम उठाने पर मजबूर कर दिया। सेबी ने आईपीओ के मूल्य में मर्चेंट बैंकरों की जवाबदेही तय करने के लिए उनके द्वारा संचालित पुराने आईपीओ का हाल बताना जरूरी कर दिया है।
इस सिलसिले में मंगलवार को जारी एक सर्कुलर में सेबी ने कहा है कि मर्चेंट बैंकर 1 नवंबर 2011 से जो भी इश्यू हाथ में लेंगे, उसके दस्तावेज में उन्हें खुलासा करना पड़ेगा कि उनके द्वारा संचालित पूराने आईपीओ के मूल्य का क्या हिसाब-किताब रहा है। असल में आईपीओ या एफपीओ में प्रति शेयर वाजिब मूल्य तय करने का काम मर्चेंट बैंकर का ही होता है। लेकिन व्यवहार में होता यह है कि मर्चेंट बैंकर प्रवर्तकों और ऑपरेटरों के साथ मिलकर इश्यू का अनाप-शनाप मूल्य कर देते हैं। लिस्टिंग के दिन शेयरों के भाव को चढ़ा दिया जाता है। जब चढ़े हुए भावों पर ऑपरेटर अपने शेयर निकाल लेते हैं, तब कंपनी का स्टॉक अचानक अपनी असली औकात पर आ जाता है। यह आज का कोई अपवाद नहीं, बल्कि नियम-सा बन गया है।
सेबी ने नए सर्कुलर के जरिए इस पर रोक लगाने की कोशिश की है। उसने पूरा एक फॉर्मैट तैयार किया है जिसमें मर्चेंट बैंकरों को पुराने आईपीओ का ब्यौरा देना होगा। उन्हें बताना होगा कि आईपीओ में लिस्टिंग के दिन शेयर का मूल्य कितने पर खुला, कितने पर बंद हुआ और उस दिन बाजार सूचकांक में कितना अंतर आया था। यह ब्यौरा उसे लिस्टिंग के दसवें, बीसवें और तीसवें दिन के लिए भी देना होगा।
मर्चेंट बैंकर को यह भी बताना होगा कि पिछले तीन वित्तीय वर्षों में उसने कितने आईपीओ लाने में मदद की, उनमें से कितने लिस्टिंग के दिन गिरे या कितने बढ़े। फिर तीसवें दिन कितने डिस्काउंट पर ट्रेड हुए और कितने प्रीमियम पर। सेबी ने इश्यू मूल्य से अंतर की तीन श्रेणियां – 50 फीसदी से ज्यादा, 25 से 50 फीसदी और 25 फीसदी के कम की बना रखी हैं।