क्या कोई व्यक्ति देश के शहरी इलाके में 1286 रुपए और ग्रामीण इलाके 1089 रुपए में महीने भर खाने-पीने, कपड़े-लत्ते और रहने के साथ ही स्वास्थ्य व शिक्षा का इंतज़ाम कर सकता है? आप कहेंगे कि इसका मतलब शहर में प्रतिदिन 42.87 रुपए और गांव में 36.30 रुपए में गुजारा करना, जो कि असंभव है। लेकिन भारत सरकार के नीति आयोग ने संयुक्त राष्ट्र संस्था यूएनडीपी के साथ मिलकर मल्टी डायमेंशन पॉवर्टी का यही पैमाना बनाया कि जो महीने में इससे कम कमा रहा है, वही गरीब है। उनके हिसाब में मोदीराज के दौरान देश में गरीबों की संख्या घटकर 22.80 करोड़ रह गई है। इसी आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गरीबों के हितैषी होने के दावा करते हैं। लेकिन गरीब बगावत न कर दें, इसलिए जनता के टैक्स से 81.35 करोड़ लोगों को महीने का पांच किलो मुफ्त राशन भी दे रहे हैं, इस अंदाज़ में जैसे कोई धन्नासेठ अपनी जेब से गरीबों को मुफ्त भोजन करा रहा हो। लेकिन वे जवाब नहीं देते कि आखिर देश में 50% नीचे की आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का मात्र 3% क्यों है, वो देश की आय का केवल 13% क्यों कमा पा रही है और भारत के 35.5% बच्चे कुपोषण के चलते नाटे क्यों रह जाते हैं? अब मंगलवार की दृष्टि…
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