बचपन से बनती मान्यताओं व धारणाओं से हमारी आंतरिक मनोवैज्ञानिक संरचना तैयार होती है। वही हमारे हर व्यवहार को नियंत्रित करती है। मन में गांठ है कि कभी हारना नहीं है तो ट्रेडर पहले से तय स्टॉप-लॉस खिसका जाता है। उसका रिस्क बढ़ता जाता है। फिर भी हार मानना उसे गवारा नहीं क्योंकि ऐसा करने से वो गलत साबित हो जाएगा। लेकिन हमेशा जीतने की मान्यता अंततः उसे घाटे में डुबा डालती है। अब शुक्र का अभ्यास…औरऔर भी

हमारी मान्यताएं आमतौर पर अतार्किक व नकारात्मक होती हैं। वे तथ्यों से मेल नहीं खातीं। फिर भी हम उनसे चुम्बक की तरह चिपके रहते हैं क्योंकि वे हमारे अवचेतन मन में गहरी पैठ बना चुकी होती हैं। हमारा सचेतन मन कितनी भी कोशिश कर ले, फैसला लेते वक्त अवचेतन मन ही निर्णायक साबित होता है। हम खूब सारी किताबें पढ़ते हैं, नए-नए लेख पढ़ते हैं। लेकिन मौका पड़ने पर कुछ काम नहीं आता। अब गुरु की दशा-दिशा…औरऔर भी

हम अपनी मान्यताओं के प्रतिकूल पड़नेवाले अनुभवों को ठुकराते और अनुकूल पड़नेवाले अनुभवों को स्वीकार करते जाते हैं। धीरे-धीरे मान्यताएं हमारी ऐसी प्रोग्रामिंग व कंडीशनिंग कर देती हैं कि हम दुनिया को खुली आंखों से देखने के बावजूद उन्हें मान्यताओं की नज़र से समझने लगते हैं। सच्चाई दूर खड़ी हमारा मुंह चिढ़ाती रहती है और हम समझ ही नहीं पाते कि हम हर काम में बराबर नाकाम क्यों होते जा रहे हैं। अब आजमाएं बुध की बुद्धि…औरऔर भी

पांच-छह साल की उम्र तक हमारे आग्रह या मान्यताएं आकार लेना शुरू हो जाती हैं। वे सामाजिक परिवेश से निकलती हैं और उन्हीं को पुष्ट करती हैं। होना तो यह चाहिए था कि शिक्षा व्यवस्था उन्हें हर पल चुनौती देती और सोचने की वैज्ञानिक, तर्कसंगत व वस्तुगत पद्धति विकसित करती। लेकिन अंग्रेज़ों ने भारतीयों की सृजन क्षमता को कुंद करने के लिए जो शिक्षा प्रणाली शुरू की, वही कमोबेश अब भी जारी है। अब मंगल की दृष्टि…औरऔर भी

मान्यताएं हमारे जीवन के हर पहलू में दखल देती हैं रिश्तों व स्वास्थ्य से लेकर बिजनेस, फाइनेंस व ट्रेडिंग तक में। मान्यताएं ऐसे सीधे-सरल विचार हैं जिन्हें हम आंख मूंदकर सच मान लेते हैं। हमें उन पर कोई भी एतराज़ बर्दाश्त नहीं होता, खासकर जब उनका सीधा ताल्लुक हम से हो। मान्यताओं की बुनियाद हमारे महसूस करने की शुरुआत से ही बनने लग जाती है। तभी से बनने लग जाते हैं हमारे आग्रह-पूर्वाग्रह। अब सोम का व्योम…औरऔर भी