हम सब अपने ही नाथ हैं। खुद ही सब करना या पाना है। कहते हैं कि भगवान सभी का नाथ है। लेकिन भगवान तो महज एक मान्यता है। मन का धन है। अन्यथा तो हम सभी अनाथ हैं। कहा भी गया है कि मानिए तो शंकर हैं, कंकर हैं अन्यथा।और भीऔर भी

सारी दुनिया दौलत के पीछे भाग रही है। काम, काम, काम। भागमभाग। लगे रहो ताकि धन बराबर आता रहे। लेकिन इससे कहीं ज्यादा अहम है इसकी चिंता करना कि हम अपने घर-परिवार के साथ ज्यादा भावपूर्ण रागात्मक ज़िंदगी कैसे जी सकते हैं।और भीऔर भी

दुनिया में हर अच्छी चीज का दुरुपयोग हुआ है। इसके लिए दोषी वो चीज नहीं, बल्कि वे चालबाज इंसान हैं जो अपने हितसाधन की अंधी दौड़ में लगे हैं। इनकी अंधेरगर्दी को रोकने के लिए कानून बनते हैं। पर इनसे बचने के लिए वे सत्ता में आ जाते हैं।और भीऔर भी

मेहनत का मोल नहीं, प्रतिभा का भाव नहीं। ठगों की बस्ती है। ठगी का दौर है। कोई सीधे-सीधे ठग रहा है तो कोई घुमाकर। सारा कुछ डर और लालच के हमारे शाश्वत भाव का फायदा उठाकर किया जा रहा है। लेकिन यह भी तो एक दौर है। बीत जाएगा।और भीऔर भी

जो साफ-साफ दिखता है, उसको उल्टा देखना हमारी आदत है। हम जिस पर अंध आस्था रखते हैं, जिससे शक्ति पाने की उम्मीद करते हैं, उससे हमें कुछ नहीं मिलता। बल्कि हमारी शक्ति उसे मिल जाती है। वह शक्तिमान बन जाता है और हम दीनहीन।और भीऔर भी

पहले दुनिया सिमटी हुई थी। इर्दगिर्द खास कुछ नहीं बदलता था तो लोग सुबह-सुबह नहा-धोकर एकाध घंटे पूजापाठ करते थे। अपने अंदर झांकते थे। अब दुनिया बढ़ते-बढ़ते ग्लोबल हो गई है तो एकाध घंटे अखबारों के जरिए बाहर झांकना जरूरी हो गया है।और भीऔर भी

किसी के बिना किसी का भी काम नहीं रुकता। सबकी अपेक्षाकृत स्वतंत्र ज़िंदगी है, हिचकोले खा पटरी पर आ जाती है। ऐसे में किसी को जोड़ने का सही तरीका उसे जबरन खीचना नहीं, बल्कि वो जहां है, वहीं उसकी ज़िंदगी को और चमकाने का सूत्र दे देना है।और भीऔर भी

जीनव की कठिन शर्तें। मैराथन। जीने और जीतने की अदम्य चाहत। इसे हासिल करने में जो मददगार हो सकता है, लोग तो उसे ही देखेंगे, उसे ही पूछेंगे। हालांकि, हम सब एक-दूजे के लिए उपयोगी हैं। लेकिन इसे दिखाना और साबित भी करना पड़ता है।और भीऔर भी

एक तो मानव मस्तिस्क की संरचना, ऊपर से वर्तमान के खांचे में कसी सोच की धृतराष्ट्री जकड़। सो, वर्तमान की सार्थक आलोचना और भविष्य की तार्किक दृष्टि तक हम पहुंच ही नहीं पाते और आगे बढ़ने की कोशिश में हमेशा मुंह की खाते रहते हैं।और भीऔर भी

हम वर्तमान की जमीन पर खड़े होकर, उसी के फ्रेम में रहकर भविष्य का अनुमान लगाते हैं। भविष्य में यह फ्रेम खुद कैसे बदल जाएगा, इसका पता नहीं रहता। इसीलिए बड़े-बड़े विशेषज्ञों तक की भविष्यवाणियां बाद में हास्यास्पद साबित हो जाती हैं।और भीऔर भी