अनहद की राह
शरीर को साधकर पहलवान बना जा सकता है और मन को साधकर वैज्ञानिक। लेकिन अनहद का उल्लास दोनों ही नहीं पा सकते। यह तो उन्हीं को मिलता है जो तन और मन दोनों को साधते हैं।और भीऔर भी
सूरज निकलने के साथ नए विचार का एक कंकड़ ताकि हम वैचारिक जड़ता तोड़कर हर दिन नया कुछ सोच सकें और खुद जीवन में सफलता के नए सूत्र निकाल सकें…
शरीर को साधकर पहलवान बना जा सकता है और मन को साधकर वैज्ञानिक। लेकिन अनहद का उल्लास दोनों ही नहीं पा सकते। यह तो उन्हीं को मिलता है जो तन और मन दोनों को साधते हैं।और भीऔर भी
गमले में पौधे और बोनसाई ही उगते हैं, पेड़ नहीं। इसी तरह विचार व्यवहार की आंधियों में पलते हैं, बंद कोटरों में नहीं। दुनिया के झंझावातों में निखरते हैं, इतिहास के थपेड़ों से संवरते हैं विचार।और भीऔर भी
हर शब्द के साथ कोई न कोई छवि या पूर्वाग्रह जुड़ा है। शब्दों के परे वह अवस्था है जब हम शुद्ध क्रिस्टल की तरह निर्मल व पारदर्शी बन जाते है। पर वहां शब्दों से भागकर नहीं, मथकर ही पहुंचा जा सकता है।और भीऔर भी
समाज में जब तक हम बहुत बड़े नहीं बन जाते, तब तक इस्तेमाल किए जाने का खतरा हमेशा हमारे ऊपर मंडराता रहता है। हम मगन होकर काम करते हैं। लेकिन अनजाने में इस्तेमाल हो जाते हैं।और भीऔर भी
यहां से वहां तक सारे फैसले तो लोग ही करते हैं। दूर से सब कुछ धुंधला दिखता हैं। यह धुंधलका और गहरा हो जाए, साफ कुछ न दिखे, इसलिए लोग भगवान व विधान का पाखंड खड़ा कर देते हैं।और भीऔर भी
विद्या विनय देती हो या नहीं, लेकिन ज्ञान जरूर मुक्त करता है। पर ज्ञान व मुक्ति के अलग-अलग स्तर हैं। जो जितना मुक्त है, उतना संपन्न है। वैसे हर संपन्न व्यक्ति का मुक्त होना जरूरी नहीं।और भीऔर भी
एक ही समय एक ही तरह के लोग एक ही मकसद के लिए एक ही तरह का काम कर रहे होते हैं। अकेले-अकेले। साथ आ जाएं तो जबरदस्त अनुनाद पैदा कर सकते हैं। लेकिन साथ आएं भी तो कैसे?और भीऔर भी
जब तक हम देना नहीं शुरू करते, तब तक हमेशा छोटे बने रहते हैं। सिर्फ पाने की चाह हमें कमजोर व दीन-हीन बनाए रखती है। इससे निकलना है तो हमें बेधड़क देने का सिलसिला शुरू करना होगा।और भीऔर भी
इस सृष्टि में अनंत अदृश्य शक्तियां सक्रिय हैं। वे इच्छाधारी हैं और खुद को जितना चाहें, उतना गुना कर सकती हैं। आहट मिलते ही वे मनोयोग व लगन से काम में लगे लोगों की मदद को दौड़ पड़ती हैं।और भीऔर भी
पैसा रिश्तों में दरार नहीं डालता। पैसा तो असली रिश्तों की पहचान कराता है। अगर कोई आपके पैसे खा जाए तो समझ लीजिए कि वह आपका असली दोस्त कभी नहीं था। बस हेलो-हाय, बाय-बाय था।और भीऔर भी
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