कण-कण में संघर्ष है, भगवान नहीं

सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पाणी। दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करो क्योंकि सृष्टि के कण-कण में राम हैं, भगवान हैं। अच्छा है। परीक्षा में प्रश्नपत्र खोलने से पहले बच्चे आंख मूंदकर गुरु या भगवान का नाम लेते हैं। अच्छा है। नए काम का श्रीगणेश करने से पहले माता भगवती के आगे धूप-बत्ती जला लेते हैं। अच्छा है। क्या बुराई है। हम किसी का कुछ बिगाड़ तो नहीं रहे। एक बार गांव में एक गरीब बेसहारा बुजुर्ग ने कहा था – भइया, आपन दुख या तौ हम जानी या भगवान। इस बूढ़े से आप भगवान की लाठी छीन लेंगे तो वह जी कैसे पाएगा। कोई नई लाठी दिए बगैर उससे पुरानी लाठी छीनिएगा भी मत। बड़ा पाप लगेगा।

लेकिन यही भगवान जब हमारी आंखों पर आस्था की अपारदर्शी पट्टी बांधकर हमें बापुओं, स्वामियों, प्रचारकों की सत्ता-लोलुपता का शिकार बना देता है तब वह खतरनाक हो जाता है। हमारी निर्दोष आस्था तब हमें ताकत नहीं देती। वह एक ऐसा काला कम्बल बन जाती है जिससे ढंककर ठग हमसे सारा कुछ लूट ले जाते हैं। किसी शिव की आस्था अगर हमें आत्मशक्तियों को जगाने में मददगार लग रही है तो ठीक है। किसी पेड़ के सामने शीश नवाना अगर हमें अनिश्चितता से निपटने का संबल दे रहा तो ठीक है। लेकिन हमारी मासूम आस्था किसी के लिए माल बेचने का साधन न बन जाए, इसका ख्याल तो हमें ही रखना पड़ेगा।

फिर भी व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि किसी भी किस्म की दैवी आस्था हमें कमज़ोर करती है। कण-कण में भगवान को देखने की आदत हमें असलियत को देखने नहीं देती। सतह भर देखते हैं हम, भीतर नहीं पैठते। चमक देखते हैं, असल नहीं। फिर भगवान से जुड़ी यही आदत हमारा स्थाई दृष्टिदोष बन जाती है। खूबसूरत लड़की देखते हैं। फिदा हो जाते हैं। नहीं सोचते कि इस सुंदर शक्लोसूरत वाले इंसान के भीतर चल क्या रहा होगा। कैसे-कैसे द्वंद्व से गुजर रही होगी वो लड़की। उसकी सामाजिकता, उसके संघर्ष को जाने बगैर हम उसे बोल भी दें कि आई लव यू तो हो सकता है कि किसी भ्रम में थोड़े समय के लिए साथ आ जाए। लेकिन जो उसके अंदर-बाहर के संघर्षों को नहीं देख-समझ सकता, वो उसका साथी नहीं रह सकता।

असली बात यही है कि सृष्टि की हर जीवित-निर्जीव चीज़ में निरंतर संघर्ष चल रहा है। ब्रह्माण्ड में संघर्ष है, अणु में संघर्ष है, परमाणु में संघर्ष है। समाज में संघर्ष है। शरीर में संघर्ष है। दांतों का भला डॉक्टर आपको बताएगा कि हर समय कैसे आपके मुंह में अच्छे और बुरे बैक्टीरिया संघर्ष करते रहते हैं। नख से शिख तक हम संघर्ष में डूबे हैं। जान निकल जाती है तब भी शरीर का संघर्ष खत्म नहीं होता। तमाम जीवाणु उसे सड़ा-गलाकर प्रकृति के चक्र में वापस लौटाने में जुट जाते हैं।

प्रकृति और पुरुष का संघर्ष शाश्वत है। मन में संघर्ष है। विचारों की उठापटक है। घर में संघर्ष है। दफ्तर में संघर्ष है। देश में संघर्ष है। विश्व में संघर्ष है। अंदर-बाहर हर जगह संघर्ष ही संघर्ष है। हर सृजन के पीछे यही संघर्ष काम करता है। संघर्षण न हो तो पुनरोत्पादन की प्रक्रिया ही थम जाएगी। लेकिन दिक्कत यही है कि हम संघर्षों से भागते हैं। और इस पलायन में भगवान नाम की सत्ता हमारी मदद को आ जाती है। हमें अपनी कायरता का साधन बननेवाले इस भगवान से निजात पानी होगी। कण-कण में भगवान के बजाय, कण-कण में संघर्ष के शाश्वत सच को स्वीकार करना पड़ेगा।

3 Comments

  1. Inspiring article.

  2. विचारणीय लेख।

  3. आपके सभी लेख नवीनता से भरपूर है. अध्यात्म अपनी जगह ठीक है, लेकिन अन्धविश्वास कतई नही होना चाहिये. लेकिन आज का इन्सान अपनी जरुरत के हिसाब से नये भगवान की रचना खुद ही और कभी भी कर लेता है…मै आपसे पूरी तरह सहमत हु…

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