डेरिवेटिव सौदे बहुतेरे, काम के कितने

दुनिया में डेरिवेटिव ट्रेडिंग की शुरुआत करीब 400 साल पहले हुई थी। इसके कुछ उदाहरण यूरोप में ट्यूलिप के फॉरवर्ड सौदे और जापान में चावल के फ्यूचर्स हैं। मशहूर कैंडल स्टिक पद्धति का आगाज़ जापान में चावल के फ्यूचर्स की ट्रेडिंग से ही हुई। दुनिया के सबसे पुराना फ्यूचर्स व ऑप्शंस एक्सचेंज – शिकागो बोर्ड ऑफ ट्रेड का गठन 1848 में हुआ। वहीं, भारत में पहला फ्यूचर्स बाज़ार साल 1875 में बॉम्बे कॉटन ट्रेड एसोसिएशन के रूप में शुरू हुआ। यह वही साल था जब देश में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज की शुरूआत हुई थी।

तब से लेकर बहुत कुछ बदल चुका है। डेरिवेटिव ट्रेडिंग में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) बहुत पीछे छूट चुका है, जबकि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) भारत ही नहीं, दुनिया में सबसे ज्यादा सौदों वाला डेरिवेटिव एक्सचेंज बन गया है। कैश सेगमेंट का रोज का टर्नओवर 60-65 हज़ार करोड़ रुपए का है तो डेरिवेटिव सेगमेंट का रोजाना का टर्नओवर 11-12 लाख करोड़ रुपए का चल रहा है। खास बात यह है कि इसमें फिजिकल डिलीवरी का चक्कर नहीं होता। सब कुछ ज्यादा से ज्यादा महीने के अंतिम गुरुवार को सेटल हो जाता है तो लंबे निवेश की तरह सालों-साल रिस्क का बोझा नहीं ढोना पड़ता। घाटा तो घाटा, फायदा तो फायदा।

लेकिन इसके बावजूद कुछ भी हवा-हवाई नहीं होता। इंडेक्स आधारित डेरिवेटिव कैश सेगमेंट में संबंधित सूचकांक के भाव से जुड़े होते हैं। इसी तरह स्टॉक फ्यूचर्व व ऑप्शंस का सारा ऊंच-नीच कैश सेगमेंट में उसके भाव से जुड़ा होता है। उसी तरह जैसे किसी भौतिक वस्तु के कोई रबर जैसी फ्लेक्सिबदल डोर बांध दी जाए तो खिंचने व सिकडने के बावजूद मूल वस्तु की धुरी से ही जुड़ी और संचालित होती है। लेकिन सबसे अहम मसला है कि आखिर कैश सेगमेंट के भाव और डेरिवेटिव सेगमेंट के भाव में क्या रिश्ता होता है। इस रिश्ते का समीकरण क्या है? किन-किन अन्य चीजों से डेरिवेटिव सेगमेंट के भाव निर्धारित होते हैं।

एक बात याद रखें कि डेरिवेटिव सौदे बहुत सारे हो सकते हैं। कुछ डेरिवेटिव ओवर-द-काउंटर (ओटीसी) होते हैं। लेकिन वे चंद व्य़क्तियों या समूहों के बीच होते हैं। इसलिए उनसे रिटेल ट्रेडरों का कोई वास्ता नहीं है। फ्यूचर्स व ऑप्शंस एक्सचेज में ट्रेह होते हैं, इसीलिए रिटेल ट्रेडर के लिए उनमें हिस्सा लेना संभव व सुरक्षित है। अब कुछ बुनियादी बातें। फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट ऐसे अनुबंध हैं जिनमें स्टॉक्स, सूचकांक. बांड, कमोडिटी या मुद्रा जैसी आस्तियों को पहले से निश्चित भाव व तारीख पर खरीदने या बेचने का सौदा किया जाता है। इसमें भाव की रेंज और तारीख एक्सचेंज पहले से तय करके रखता है। अपने यहां व्यवस्था यह है कि सौदे की एक्सपायरी के दिन फिजिकल डिलीवरी लेनी या देनी नहीं पड़ती। सौदा करने और उसकी एक्सपायरी के दिन के बीच भावों में अंतर के हिसाब से मार्जिन भी देते रहता पड़ता है। फ्यूचर्स के सौदे के भाव और एक्सचेंज में एक्सपायरी के दिन संबंधित आस्ति के भाव के अंतर का लेन-देन कर लिया जाता है।

हर फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट का लॉट साइज़ एक्सचेंज पहले से तय करके रखता है। यह स्टॉक एक्चचेंज से लेकर कमोडिटी व विदेशी मुद्रा एक्सचेंजों में अपने-अपने तरीके से होता है। मसलन, कमोडिटी एक्सचेजों में क्रूड ऑटल के फ्यचर्स कॉन्ट्रैक्ट का लॉट 100 बैरल का है। वहीं, एनएसई में निफ्टी फ्यूचर्स का लॉट साइज 75 और बैंक निफ्टी का 40 का है। आज की तारीख में आपको निफ्टी का एक लॉट खरीदने के लिए 8.10 लाख रुपए और बैंक निफ्टी का एक लॉट खरीदने के लिए 10.57 लाख रुपए लगाने पड़ेंगे। वहीं, एसीसी में फ्यूचर्स का लॉट 400 शेयरों और एशियन पेंट्स में 600 का है तो उनके फ्यूचर्स सौदों के लिए कम से कम क्रमशः 5.86 लाख रुपए और 7.71 लाख रुपए चाहिए होंगे। जाहिर है कि यह रकम बहुत ज्यादा है तो रिटेल ट्रेडर फ्यूचर्स के बजाय ऑप्शंस की तरफ ज्यादा भागते हैं।

इसलिए हम फ्यूचर्स के लफड़े में उलझने के बाद ऑप्शंस को ज्यादा समझने की कोशिश करेंगे। आगे की बात कल करेंगे। तब तक अपना ख्याल रखिए। कोरोना संबंधी नियमों का पालन दृढ़ता से करें क्योंकि आप बहुमूल्य हैं अपने और अपने परिजनों के लिए ही नहीं, इस देश व समाज के लिए भी।

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