जब तक जिंदा हूं, देख-सुन सकता हूं, तब तक जहां तक निगाहें, वहां तक फतेह। घर छीन लो, समाज छीन लो। लेकिन प्रकृति को कौन मुझसे छीन सकता है? वो तो जन्म से मेरी है और मरने पर भी रहेगी।
2011-06-18
जब तक जिंदा हूं, देख-सुन सकता हूं, तब तक जहां तक निगाहें, वहां तक फतेह। घर छीन लो, समाज छीन लो। लेकिन प्रकृति को कौन मुझसे छीन सकता है? वो तो जन्म से मेरी है और मरने पर भी रहेगी।
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