मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू। दांव से कितना मिलेगा, इस पर तो हम बल्ले-बल्ले करते हैं। लेकिन क्या दांव पर लगा है, इसे अक्सर भुलाए रहते हैं। शेयर बाज़ार में हम जैसे ही कोई ट्रेड करते हैं, रिवॉर्ड की संभावना के साथ रिस्क की आशंका चील की तरह उसके ऊपर मंडराने लगती है। सुमेरु पर्वत को कोई कृष्ण ही उंगली पर उठा सकता है। पर पक्का जान लें कि रिटेल निवेशक या ट्रेडर होने के नाते हम बाज़ार की दिशा नहीं तय कर सकते। संस्थाएं क्या, सरकार भी ऐसा नहीं कर पाती। इसलिए किसी को भी इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि वह बाज़ार से ऊपर है।
फिर सवाल उठता है कि बाज़ार, खासकर अपने ट्रेड के जोखिम को हम कैसे बांधें? हर सौदे पर स्टॉप लगाना ज़रूरी है, यह सभी जानते हैं, भले ही इसका पालन अक्सर न करते हों या करते भी हों तो अपने हठ के हिसाब से उसे बदलते रहते हों। याद रखें कि हम जो भी सौदा करते हैं, उसमें हारना या जीतना हमारे वश में नहीं है। हां, जो हमारे वश में है वो है अपना नुकसान या घाटा। हम इसे बांध सकते हैं। लेकिन इसे बांधने के लिए स्टॉप लॉस के अलावा भी तीन तरीके हैं।
पहला तरीका है सौदों की संख्या। कई बार होता यह है कि हमें कई फायदेमंद सौदे एक साथ दिख जाते हैं। ‘किस-किस को किस करूं’ वाली हालत हो जाती है। हम चुनाव नहीं कर पाते। लालच के वशीभूत हो जाते हैं। लगता है कि कहीं यह मौका पकड़ूं तो दूसरा छूट न जाए। अनिश्चितता और अनिर्णय की यह स्थिति अपरिहार्य है। सबसे सामने आती है। लेकिन यहां भी वही कहावत लागू होती है कि आधी छोड़ पूरी को धावै, आधी रहै न पूरी पावै।
एक नया ट्रेडर या निवेशक होने के नाते हमें चुनना पड़ेगा कि किस सौदे को हाथ लगाएं, किसको छोड़ें। हमें अपनी पूंजी और जोखिम उठाने की क्षमता के हिसाब से सौदों की संख्या तय करनी होती है। यह आकलन हमें बाज़ार या सौदे में घुसने के पहले करना होता है, बाद में नहीं। अनावश्यक जोखिम उठाने से हमारी पूंजी ही नहीं डूबती, हमारा मन भी खराब होता है। इसलिए जरूरी है कि हम पहले से तय अनुशासन की लक्ष्मण रेखा कभी न तोड़े। वही सौदे चुनें जिनमें घाटे की आशंका कम से कम और फायदे की संभावना या प्रायिकता सबसे ज्यादा हो। ध्यान रहे कि शेयर बाज़ार में मौके एक बार नहीं, बारंबार आते हैं। एक अवसर चूकता है तो दूसरा सामने आ जाता है।
घाटे को बांधने का दूसरा तरीका है सौदे की अवधि। शेयर बाज़ार में सौदे की अवधि जितनी ज्यादा होती है, रिस्क उतना ज्यादा बढ़ता जाता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि लंबे समय के निवेशक ट्रेडर की तुलना में कही ज्यादा रिस्क उठाते हैं। आपने खुद देखा होगा कि छह महीने में शेयर के भाव बढ़ गए और आपने लंबे समय की सोचकर नहीं बेचा तो एक दिन वही सौदा आपको घाटे की दलदल में धंसा देता है। जीवीआर पावर के साथ मैं खुद इस मानसिकता का भुक्तभोगी रहा हूं। 22 में खरीदा था, 44 तक गया। मैंने नहीं निकाला। अब वही शेयर 8.19 रुपए चल रहा है।
पहले से तय कर लें कि कोई ट्रेड कितने वक्त के लिए है। इंट्रा-डे, स्विंग ट्रेड, मोमेंटम ट्रेड, पोजिशनल ट्रेड अथवा दो से पांच या दस साल का लंबा निवेश। इस दौरान जब भी आपका अनुमानित स्तर हासिल हो जाए, फौरन बिना कोई मोह किए उससे निकल जाएं। जब भी आप छोटे टाइमफ्रेम में ट्रेडिंग करते हैं तो बाज़ार के उतार-चढ़ाव का रिस्क भी कम रहता है। यह मान्यता अलग बात है कि शेयरों या इक्विटी म्यूचुअलों में लंबे समय का निवेश फलदायी होता है। लेकिन इस पर भी एक बार पुनर्विचार करने की ज़रूरत है। इसे अपने अनुभव से मिलाकर देखिए और उसके अनुरूप आगे का रास्ता निर्धारित कीजिए।
रिस्क या घाटे को कम करने का तीसरा और सबसे महत्वूपर्ण तरीका है सौदे का वोल्यूम। यह कि एक सौदे में आप कितने शेयर खरीदते या शॉर्ट सेल करते हैं। मसलन, आपने तय किया कि आपको हिंदुस्तान यूनिलीवर खरीदना है तो स्वाभाविक सवाल उठता है कि इसके कितने शेयर आपको खरीदने चाहिए। अगर आपने नई-नई ट्रेडिंग शुरू की है तो आपको वोल्यूम हमेशा कम रखना चाहिए। अनुभव के साथ सफलता का स्तर बढ़ता जाए तो वोल्यूम को धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए।
ध्यान दीजिए कि यहां वोल्यूम को धीरे-धीरे बढ़ाने की बात हो रही है। अक्सर होता यह है कि दस शेयरों में कामयाबी मिली तो हम इतने आश्वस्त हो जाते हैं कि 100 से 1000 और 10,000 तक पहुंचने लगते हैं। इसके लिए दूसरों से उधार तक ले बैठते हैं। यहां एक बात नोट कर लीजिए कि कभी भी उधार के पैसों से ट्रेड न करें। आपकी जरूरतों से ऊपर का जो अपना धन है, उसे ही अपनी आधार पूंजी मानें। अगर आपने कहीं से जुगाड़ कर ज्यादा पूंजी लगा दी तो उसी अनुपात में आपको घाटा भी बढ़ सकता है। 10 शेयरों का घाटा 1000 शेयरों पर सौ गुना बढ़ जाता है। इसलिए सौदे का वोल्यूम या आकार थोड़ा-थोड़ा करके ही बढ़ाएं।
इस तरह सौदों की संख्या, सौदे की मीयाद और किसी एक सौदे में शेयरों की संख्या या वोल्यूम – ये तीन तरीके हैं जिन्हें स्टॉप लॉस के साथ-साथ हमेशा अपनाना चाहिए ताकि हमारा घाटा कम से कम रहे और हमारी पूंजी सही-सलामत रहे। सबसे पहले हमें अपनी ट्रेडिंग पूंजी की सलामती की फिक्र करनी चाहिए क्योंकि वो रहेगी तभी हम कोई सौदे कर पाएंगे। अन्यथा हमारे हाथ बंध जाएंगे और अच्छे-अच्छे मौके हमें मुंह चिढ़ाते हुए हमारी आंखों से आगे सरकते जाएंगे।
अंत में एक और बात। शेयर बाज़ार में ट्रेडिंग में चिड़िया की आंख वाला अर्जुन का फॉर्मूला काम नहीं करता। पूरा माहौल, पूरा पेड़ और हवा का रुख भांपने के बाद ही तीर निशाने पर लग सकता है। हमें कायदे से देखना-समझना पड़ता है कि ठीक इस वक्त बाज़ार का समग्र माहौल क्या है, जिस सेक्टर का शेयर हम चुन रहे हैं उसका समग्र ट्रेंड क्या है और इसके बाद सौदे के लिए चुना गया शेयर अभी किस मुकाम पर है। बाज़ार के लांग टर्म, मिड टर्म और शॉर्ट टर्म ट्रेंड को दिमाग के किसी कोने में बैठाए रखना ज़रूरी है।
ट्रेडिंग तो बहुत से लोग शुरू कर देते हैं और बराबर करते भी रहते हैं। लेकिन बहुत ही कम लोग बाज़ार व सौदे के रिस्क का विश्लेषण करते है। नतीजतन वे हवा में तीर चलाते हैं, सच की नहीं मन की सुनते हैं और अंततः मात खाते हैं। इससे बचना है तो फायदे के साथ-साथ घाटे का पूर्व-आकलन जरूरी है। जोखिम को कायदे से समझना ही नहीं, आत्मसात करना भी ज़रूरी है। हम व्यक्तिगत स्तर पर अपनी सोच को इस तरह ढालेंगे, तभी कोई भी बाहरी सूचना हमारे काम आ सकती है। नहीं तो हम घाटा खाने को अभिशप्त ही बने रहेंगे। हम आप इस अवस्था से बाहर निकलें, यही हमारा अभिप्राय है। तथास्तु…