मोदी सरकार के राज में जीडीपी से लेकर मुद्रास्फीति और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) तक का आंकड़ा एकदम अविश्सनीय हो गया है। समझदार लोग इन पर भरोसा नहीं करते। देश के आम आदमी की हालत खराब है, इस प्रत्यक्ष तथ्य को किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं। दिक्कत यह है कि जिस कॉरपोरेट क्षेत्र के कंधे पर सवार होकर यह सरकार भारत को विकसित देश बनाने का सपना बेच रही है, उसके कंधे भी अब दुखने लगे हैं।औरऔर भी

सितंबर में जीएसटी संग्रह 40 महीनों की न्यूनतम दर 6.5% से बढ़कर ₹1.73 लाख करोड़ पर पहुंचा तो सरकार बड़ी मायूस थी। अब अक्टूबर में 8.9% बढ़कर ₹1.87 लाख करोड़ हो गया तो बड़ी गदगद है। यह जुलाई 2017 में जीएसटी के लागू होने के बाद की दूसरी सबसे बड़ी वसूली है। अप्रैल 2014 में सबसे ज्यादा ₹2.10 लाख करोड़ का जीएसटी जमा हुआ था। लेकिन ज्यादा जीएसटी पर चहकना सरकार की उसी तरह की क्रूरता हैऔरऔर भी

देश में आर्थिक विकास का दस साल से बनाया गया तिलिस्म धीरे-धीरे टूट रहा है। अक्टूबर महीने में भले ही त्योहारी सीजन की बिक्री की वजह से जीएसटी संग्रह 8.9% बढ़ गया हो, लेकिन सितंबर में यह 6.5% ही बढ़ा था जो पिछले 40 महीनों का न्यूनतम स्तर था। इसी तरह देश का व्यापार घाटा सितंबर में साल भर पहले के 20.08 अरब डॉलर से बढ़कर 20.78 अरब डॉलर हो गया। यह अगस्त में 29.65 अरब डॉलरऔरऔर भी

देश में सुख-समृद्धि का क्या स्थिति है? कीर्ति और ऐश्वर्य की पताका कहां फहरा रही है? आम लोगों की बात करें तो खाने-पीने की चीजों की महंगाई के चलते अक्टूबर 2024 में औसत भोजन की थाली पिछले साल के इसी महीने की तुलना में 52% महंगी हो गई है, जबकि इस दौरान औसत वेतन और मजदूरी 9-10% ही बढ़ी है। थोड़ा ऊपर बढ़ें तो स्कूटर व मोटरसाइकल की बिक्री 2018-19 में 2.12 करोड़ के शीर्ष पर पहूंचनेऔरऔर भी

अण्णा आंदोलन और उसके बाद हुए सत्ता परिवर्तन के बाद लगा था कि अब देश से भ्रष्टाचार व कालाधन खत्म हो जाएगा। झूठ का नाश हो जाएगा। असत्य हमेशा-हमेशा के लिए हार गया और सत्य की पताका लहराती रहेगी। लेकिन सच क्या है? भ्रष्टाचार ऊपर से लेकर नीचे तक अब भी फैला हुआ है। राफेल से लेकर पेगासस और इलेक्टोरल बॉन्डों तक, फेहरिस्त बड़ी लम्बी है। राजनीति से लेकर अर्थनीति समेत सार्वजनिक जीवन तक में असत्य वऔरऔर भी

दस साल पहले देश में आशाओं और आकांक्षाओं के उबाल का दौर था। इसी उबाल को अन्ना आंदोलन ने हवा दी थी और इसी पर सवार होकर 2014 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सीधे देश के प्रधानमंत्री बन गए थे। देश के बहुमत को यकीन था कि हम विकास के नए दौर में छलांग लगाने जा रहे हैं। हर साल दो करोड़ नए रोज़गार। हर देशवासी के बैंक खाते में स्विस बैंकों में जमा भारतीयों केऔरऔर भी

त्योहारों का मौसम चलते-चलते दीपावली के पर्व तक आ पहुंचा। आशाओं व आकांक्षाओं के पूरा होने का पर्व। सुख, शांति, समृद्धि, कीर्ति व ऐश्वर्य का पर्व। असत्य पर सत्य की जीत का पर्व। भारतवर्ष में सदियों से चली आ रही परम्परा का पर्व। इसमें सबसे पहले पाली भाषा में कहा गया, “सब्बे सत्ता सुखी होन्तु, सब्बे होन्तु च खेमिनो। सब्बे भद्राणि पस्सन्तु, मा किंचि पाप माग मा, मा किंचि सोक माग मा, मा किंचि दुख माग मा॥”औरऔर भी

क्या विकसित देश का मतलब जीडीपी बढ़ जाना ही होता है? नहीं, इसका वास्ता सकल जीडीपी से नहीं, बल्कि प्रति व्यक्ति जीडीपी या आय से है। विश्व बैंक के मुताबिक विकसित देश की प्रति व्यक्ति आय 13,846 डॉलर से ज्यादा होनी चाहिए। भारत की प्रति व्यक्ति आय इस साल के अंत तक 2396 डॉलर हो सकती है। जाहिर है कि विकसित देश बनने तक भारत का फासला बहुत लम्बा है। लेकिन क्या प्रति व्यक्ति आय हासिल करनेऔरऔर भी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेबाकी से झूठ बोलते हैं। यह उनकी आदत, संघी प्रशिक्षण व संस्कार का हिस्सा है। उनके तमाम मंत्री-संत्री तक झूठ बोलते हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण तक बेझिझक झूठ बोल देती हैं। यह हकीकत मोजीराज के दस साल में जगजाहिर हो चुकी है। दिक्कत यह है कि आज रिजर्व बैंक जैसा शीर्ष मौद्रिक संस्थान तक अपने गवर्नर शक्तिकांत दास की अगुआई में झूठ गढ़ने और फैलाने में सिद्धहस्त हो गया है। रिजर्व बैंक बिनाऔरऔर भी

मोदी सरकार ने दस साल के शासन में अर्थव्यवस्था के कुशल वित्तीय प्रबंधन का नगाड़ा बहुत बजाया है। लेकिन हकीकत में यह ढोल के भीतर की पोल और भयंकर कुप्रबंधन है। वित्तीय प्रबंधन का बड़ा सटीक पैमाना होता है राजकोषीय़ घाटा। बीते वित्त वर्ष 2023-24 में तमाम जोड़तोड़ के बावजूद देश का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 5.63% रहा है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस पर खूब अपनी पीठ थपथपाई। मगर यह 2012 से 2019 के दौरानऔरऔर भी