देश इस समय खतरनाक व नाजुक स्थिति में है। सरकार में एक व्यक्ति की मनमानी चल रही है। संविधान ताक पर रख दिया है। हर तरफ छल-प्रपंच व झूठ व बोलबाला है। सच्चाई सामने नहीं आ रही। अर्थनीति को राजनीति का ग्रहण लग गया है। पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से लेकर 2047 तक भारत को विकसित देश बना देने के शोर के बीच यह सच्चाई छिपा ली जा रही है कि 2014 से 2023 तक के नौऔरऔर भी

विदेशी मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरों को एकदम तवज्जो नहीं देता। विदेशी दौरों में मोदी-मोदी का शोर वही भीड़ लगाती है जिसे संघ व भाजपा का अंतरराष्ट्रीय तंत्र और भारतीय दूतावास खींचकर लाते हैं। अमेरिका से लेकर ब्रिटेन व फ्रांस तक का मुख्यधारा का मीडिया भारत में जो चल रहा है, उसकी जमकर निंदा करता रहता है। हालांकि सरकारों का एजेंडा एकदम अलग रहता है। कारण, किसी को राफेल जैसे हथियार बेचने हैं तो किसी कोऔरऔर भी

हम देश की छवि के बारे में कुएं के मेढक बन गए हैं। सरकारी प्रचार व मीडिया के प्रशस्तिगान से हमें लगता है कि दुनिया में भारत का गुणगान हो रहा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विश्वगुरु बन गए हैं। हकीकत यह है कि दुनिया भारत के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाती जा रही है। हाल ही में प्यू रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट को ज़ोर-शोर से प्रचारित किया गया कि दुनिया के 68% लोग मानने लगे हैं किऔरऔर भी

जी-20 साल 1999 में बना तो था दुनिया में उभर रहे आर्थिक संकटों से निजात पाने के लिए। लेकिन साल 2008 तक विश्व पटल पर उसकी कोई खास अहमियत नहीं थी। मगर, 2008 के विकट वैश्विक वित्तीय संकट के बाद उसकी भूमिका व प्रासंगिकता बढ़ गई। उसके बाद से हर साल हुए इसके शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों के राष्ट्र-प्रमुख, वित्त मंत्री और विदेश मंत्री शिरकत करते रहे। यह मंच जलवायु से लेकर विदेशी ऋण व आपसीऔरऔर भी

भारत की अध्यक्षता में हुए जी-20 के आयोजन को जनता का आयोजन बता दिया जाए तो इससे दुनिया या इसके 20 सदस्यों को क्या मिल जाएगा? लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ‘जनता का उत्सव’ और भाजपा ने जनता का जी-20 करार दिया है। क्या देश के 60 शहरों में जी-20 के आयोजन करा देना उसे जनता का उत्सव बना देता है? दिल्ली के प्रमुख आयोजन से दिल्लीवासियों को जिस तरह तीन दिन तक दूर रखा गया,औरऔर भी

जी-20 का मूल मकसद राजनीतिक नहीं, बल्कि विश्व की आर्थिक समस्याओं का समाधान निकालना है। इस बार शिखर सम्मेलन में विश्व अर्थव्यवस्था से संबंधित दो ही प्रमुख मुद्दे उभर कर सामने आए। एक, क्रिप्टो करेंसी का संचालन और दो, स्वास्थ्य संबंधी आकस्मिक चुनौतियों से निपटना। क्रिप्टो करेंसी पर साफ हो गया कि इस पर बैन नहीं लगाया जाएगा, लेकिन इसके नियमन पर कोई सहमति नहीं बनी। वहीं, स्वास्थ्य के संबंध में पेशकश की गई कि इस परऔरऔर भी

किसी व्यक्ति, कंपनी या संगठन की अहमियत तब मानी जाती है, जब उसके जाने से देश, दुनिया व समाज को बड़ा नुकसान हो और उसके अभाव को भर पाना मुश्किल हो। लेकिन क्या जी-20 के बारे में यही बात कही जा सकती है? जी-20 से अब जी-21 बन गया मंच आज खत्म हो जाए तो इससे दुनिया का कोई नुकसान नहीं होगा। एक फायदा ज़रूर होगा कि इसके आयोजन पर हर साल होनेवाली करोड़ों डॉलर की बर्बादीऔरऔर भी

जी-20 अफ्रीकी संघ को शामिल कर लिए जाने के बाद अब जी-21 हो गया है। लेकिन क्या वह विकसित देशों के समूह जी-7 के सामने विकासशील देशों या ग्लोबल साउथ की प्रखर आवाज़ बन पाया है? यह सच है कि यूक्रेन युद्ध के मसले पर दिल्ली समिट में चालाकी भरा बयान ड्राफ्ट करके ‘गइयो गाभिन, भैंसियो गाभिन’ के अंदाज़ में सर्वसम्मति हासिल कर ली गई। लेकिन राजनीति से आगे बढ़कर वैश्विक अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से निपटने कीऔरऔर भी

शिखर सम्मेलन की समाप्ति के साथ भारत से जी-20 की रौनक उतरने लगी है। अब उसके नेतृत्व की सफलता के मूल्यांकन का दौर चल रहा है। हालांकि भारत की अध्यक्षता का कार्यकाल अभी 30 नवंबर तक चलेगा। बड़ी सफलता यह है कि सम्मेलन के पहले ही दिन संयुक्त दिल्ली घोषणा पर सर्वसम्मति बन गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बोला – मैं जी-20 देशों के नेताओं के डिक्लेरेशन को अपनाने का प्रस्ताव रखता हूं। फिर अगली ही सांसऔरऔर भी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ का उनका नारा विश्व कल्याण के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत बन सकता है। लेकिन भारत की ज़मीनी हकीकत से वाकिफ कोई भी व्यक्ति सवाल उठा सकता है – किसका साथ, किसका विकास? पिछल नौ सालों में देश में आर्थिक व सामाजिक स्तर पर विषमता व वैमनस्य बढ़ता गया है। आबादी का निचला 50% राष्ट्रीय आय का मात्र 13% हासिल करता है। उसके पास देश की दौलत काऔरऔर भी