बैंकों में डिपॉजिट के घटने की क्या वजहें हो सकती हैं? आम लोगों पर दोष मढ़ देना बड़ा आसान है कि बैंकों में अपनी बचत रखने के बजाय वे उसे अब शेयर बाज़ार व म्यूचुअल फंड में लगा रहे हैं। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि जो लोग शेयर बाज़ार व म्यूचुअल फंड में निवेश कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर ऐसे युवा हैं जो बैंकों में कभी धन रखते ही नहीं थे। बैंकों में पारम्परिक रूपऔरऔर भी

एक तरफ विकसित भारत का सपना। दूसरी तरफ लोगों की घटती जमा और बढ़ते उधार। एचडीएफसी बैंक की रिसर्च रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ में उधार व जीडीपी के अनुपात की तुलना एशिया के अन्य देशों से करें तो यह अनुपात चीन तो छोड़िए थाईलैंड और मलयेशिया जैसे देशों से भी कम है। साथ ही जिस तरह के कड़े लिक्विडिटी कवरेज अनुपात (एलसीआर) की पेशकश रिजर्व बैंक ने कीऔरऔर भी

देश इस समय विचित्र स्थिति से गुजर रहा है। तेज आर्थिक विकास के लिए ज़रूरी है कि बैंक बेधड़क उद्योग-धंधों को उधार दे सकें। इसके लिए ज़रूरी है कि खुद बैंकों के डिपॉजिट अच्छी गति से बढ़ते रहें। लेकिन देश के निजी से लेकर सरकारी बैंक तक सभी डिपॉजिट की तंगी से जूझ रहे हैं। इससे उधार देने की उनकी क्षमता सीमित हो गई है। निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक, एचडीएफसी बैंक ने हाल ही मेंऔरऔर भी

नौकर मालिक की सेवा करता है क्योंकि इससे उसका दाना-पानी चलता है। नौकरशाह सरकार की बंदगी करता है क्योंकि वहीं से उसे मौज के साधन मिलते हैं। लेकिन अर्थशास्त्री के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं। फिर भी वी. अनंत नागेश्वरन अपने पेशे की गरिमा ताक पर रख मोदी सरकार और उसके कॉरपोरेट आकाओं की सेवा में लिप्त हैं। वे रिटेल मुद्रास्फीति से खाने-पीने की चीजों को हटा कोर मुद्रास्फीति को लाना चाहते हैं ताकि रिजर्व बैंक बेधड़कऔरऔर भी

सरकार के नीति-नियामकों को लगता है कि अगर देश में खाने-पीने की चीजों को हटाकर कोर मुद्रास्फीति को अपना लिया जाए तो कहीं कोई ऐतराज़ नहीं नहीं करेगा। वे समझा देंगे कि हमारे यहां रिटेल मुद्रास्फीति तय करनेवाले उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खाने-पीने की चीजों का भार 46% है, जबकि अमेरिका में यह 15%, यूरोप में 20% और यहां तक ब्राज़ील, चीन व दक्षिण अफ्रीका जैसे ब्रिक्स देशों में भी 20-25% है। इसलिए भारत में इस विसंगतिऔरऔर भी

सरकार और रिजर्व बैंक, दोनों चाहते हैं कि खाने-पीने की चीजों के दाम मुद्रास्फीति के लक्ष्य से हटा दिए जाएं क्योंकि मौद्रिक नीति से मांग घटाने का मसला हल किया जा सकता है, सप्लाई बढ़ाने का नहीं। खाद्य वस्तुओं के दाम तो सप्लाई बढ़ाकर ही घटाए जा सकते हैं, जिस पर न रिजर्व बैंक का वश है और न ही सरकार का। दरअसल, जब जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा बनता जा रहा है, तबऔरऔर भी

अगर मोदी सरकार ने अपने मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन की सलाह मान ली तो देश की मौद्रिक नीति बनाते वक्त खाने-पीने की चीजों की महंगाई को किनारे कर दिया जाएगा। यह 145 करोड़ आबादी वाले उस महादेश में होगा जो ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) के पैमाने पर दुनिया के 125 देशों में 111वे नंबर पर है, जहां भूख गंभीर समस्या है और जहां के 81.35 करोड़ लोग हर महीने सरकार से मिलने वाले पांच किलोऔरऔर भी

वी. अनंत नागेश्वरन ढाई साल से मौजूदा भारत सरकार या मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार है, भारत के नहीं। अगर भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार होते तो कभी ऐसी बात नहीं कहते कि, “भारत में सालाना एक लाख रुपए से कम कमानेवाले परिवारों के युवाओं की मानसिक सेहत बेहतर है जो नियमित व्यायाम करते हैं, परिवार में घनिष्ठता है और कभी-कभार ही अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड खाते हैं, बनिस्बत उन युवाओं से जिनकी सालाना पारिवारिक आय 10 लाखऔरऔर भी

हेल्थकेयर को कभी भी बाज़ार शक्तियों के हवाले नहीं किया जा सकता क्योंकि वो बाजार के नियमों से नहीं चलता। उसमें अनिश्चितता व विपत्ति के पहलू हैं। उसे हमदर्दी व सम्वेदना के बिना कतई नहीं चलाया जा सकता। यह भी गौरतलब है कि भारत में हेल्थकेयर एक ऐसा क्षेत्र है जहां रेग्युलेशन न के बराबर है। कोई भी कहीं भी अस्पताल या नर्सिंग होम खोल सकता है और किसी की कोई जवाबदेही नहीं। यही वजह है किऔरऔर भी

अपने देश में टैक्स का धन यूनिवर्सल हेल्थकेयर की पब्लिक फंडिंग में नहीं, बल्कि निजी बीमा कंपनियों और अस्पतालों का धंधा बढ़ाने में जा रहा है। सभी मानते ज़रूर हैं कि हेल्थकेयर की सुविधाएं देना सरकार का काम है और निजी क्षेत्र से इसकी उम्मीद करना बेमानी है। लेकिन यह भी तो सच है कि प्राइवेट हेल्थकेयर क्षेत्र को सरकार ने ज़मीन से लेकर टैक्स जैसी तमाम सुविधाओं में भारी सब्सिडी दे रखी है। इससे हुआ यहऔरऔर भी