प्रकृति है। उसके नियम हैं। समाज है। उसके भी नियम हैं। समाज के अलग-अलग घटकों के भी नियम हैं। जो प्रकृति और समाज के नियमों को समझते हैं, वे ही नया कुछ रचते हैं। बाकी या तो बहती गंगा में हाथ धोते हैं या औरों के हाथों ठगे जाते हैं।और भीऔर भी

इंसान की कोई भी रचना तब तक निष्प्राण रहती है जब तक उसे व्यापक समाज स्वीकार नहीं करता। लेकिन स्वीकृत होते ही वह रचनाकार की मंशा से अलग एक स्वतंत्र सत्ता हासिल कर लेती है।और भीऔर भी

क्लोन तो दोहराव है। उसमें सृजन कहां? जब प्रकृति के संसर्ग से नए से नया सृजन कर सकते हैं तो क्लोन पर मशक्कत क्यों? नियमों को समझकर प्रकृति के बीच रचने का आनंद प्रयोगशालों में नहीं मिलता।और भीऔर भी

इंसान अमर नहीं हो सकता। अमरत्व की कोई घुट्टी भी आज तक न तो बनी है और न ही आगे बनेगी। लेकिन इंसान की रचना अमर हो सकती है। इसलिए जीते जी ऐसा कुछ रच देना चाहिए तो हमारे बाद भी ज़िंदा रहे।और भीऔर भी

जब भी हम नया कुछ रचते हैं, रुके हुए सोते बहने लगते हैं, अंदर से ऐसी शक्तियां निकल आती हैं जिनका हमें आभास तक नहीं होता। इसलिए काम शुरू कर देना चाहिए, काबिलियत अपने-आप आ जाएगी।और भीऔर भी