देश की तकरीबन 40 ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों में की जानेवाली छोटी से बड़ी खरीद में इस कदर भ्रष्टाचार छाया हुआ है कि ई-प्रोक्योरमेंट सिस्टम अपनाने का काम एक बार फिर 26 अक्टूबर 2010 तक टाल दिया गया है। खरीद में पारदर्शिता लाने के लिए पहले तय हुआ था कि 10 लाख रुपए से ज्यादा की सारी खरीद 1 अगस्त 2010 से ई-प्रोक्योरमेंट सिस्टम से ऑनलाइन की जाएगी। लेकिन ऐन-वक्त पर इसकी तारीख टाल कर 1 सितंबर 2010 कर दी गई और अब फिर इसे लगभग एक महीने आगे खिसका दिया गया है। बता दें कि ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों और उनके संचालक बोर्ड (ओएफबी) में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भारत के नियंत्रक व महेलखा परीक्षक ने हाल ही में व्यापक रिपोर्ट निकाली है। इसके निष्कर्षों ने रक्षा मंत्रालय को परेशान करके रख दिया है और वह स्थिति को संभालने की कोशिश में लगा है। ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड (ओएफबी) कैसी-कैसी कारस्तानियां करता रहा है इसकी एक और बानगी पेश है।
सीएजी की ताजा रिपोर्ट से साफ हो जाता है कि ओएफबी ने वित्त वर्ष 2006-07 से लेकर 2008-9 के बीच टाटा और हिंदुजा समूह को 253 करोड़ रुपए का नाजायज भुगतान किया है। असल में बारह साल पहले 4 सितंबर 1998 में ओएफबी और टाटा मोटर्स (तब की टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी या टेल्को) में एक करार हुआ था जिसके तहत ओएफबी को टाटा से लिए गए सीकेडी/एसकेडी (कम्प्लीट नॉकडाउन किट/सेमी नॉकडाउन किट) से जबलपुर की वाहन फैक्टरी में 2.5 टन के ट्रक बनाने का हक दिया गया था। इसमें शर्त यह थी कि उत्पाद व उससे जुड़ी चीजों के मूल्य ‘प्राइस वेरिएशन फॉर्मूले’ से तय होंगे और करार में शामिल किसी भी मॉंडल की कीमत में आए अंतर का असर ओएफबी को पास-ऑन किया जाएगा।
लेकिन ओएफबी और टाटा मोटर्स ने 7 अगस्त 2001 और 4 दिसंबर 2006 को दो अनुपूरक करार किए जिसमें मूल करार में कई संशोधन कर दिए गए। अब तय हुआ कि टाटा मोटर्स को मूल करार के दिन यानी 4 सितंबर 1998 से 14 साल तक (4 सितंबर 2012 तक) ओएफबी को वाहनों की किट सप्लाई करनी है। साथ ही बड़ी चालाकी से प्राइस वेरिएशन फॉर्मूले को थोक मूल्य सूचकांक के वाहनों से जुड़े सब-ग्रुप ‘मोटर वेहिकल, मोटरसाइकल्स, स्कूटर्स, बाइसिकल्स एंड पार्ट्स’ के बजाय धातुओं की कीमत दर्शानेवाले ‘बेसिक मेटल एंड एलॉय’ सब-ग्रुप से जोड़ दिया गया। इस महीन खेल की वजह यह थी कि वाहनों की तुलना में धातुओं का थोक मूल्य सूचकांक काफी तेजी बढ़ रहा था तो इससे टाटा मोटर्स को ज्यादा दाम मिल जाते।
सीएजी की रिपोर्ट में बताया गया है कि वाहनों का सूचकांक 2002 से 2008 के बीच 150 से 180 पर पहुंचा, जबकि इसी दौरान धातुओं का सूचकांक 150 से बढ़कर 325 पर पहुंच गया। दोनों के सूचकांकों का अंतर आगे भी बढ़ता रहा। अनुपूरक करार में की गई इस तब्दीली का असर यह हुआ कि 1 अप्रैल 2006 से 31 मार्च 2009 के दौरान ओएफबी से मिले 1 करोड़ रुपए या इससे अधिक मूल्य के ऑर्डरों पर टाटा मोटर्स को मूल करार की तुलना में 105 करोड़ रुपए ज्यादा दिए गए। टैक्स और एक्साइज ड्यूटी को जो बोझ बढ़ा, वह अलग से। जाहिर-सी बात है कि ओएफबी ने टाटा मोटर्स को 105 करोड़ रुपए का यह फायदा कुछ ले-देकर ही पहुंचाया होगा।
टाटा मोटर्स ही नहीं, ट्रकों की दूसरी प्रमुख निर्माता, हिंदुजा समूह की कंपनी अशोक लेलैंड के साथ भी ओएफबी ने 10 अगस्त 1998 को स्टैलियॉन मॉडल के 5/5.75 टन के वाहनों की सीकेडी/एसकेडी सप्लाई का मूल करार किया था। इसकी शर्तों में 9 अप्रैल 2003, 16 दिसंबर 2005 और 17 अक्टूबर 2006 को हुए तीन अनुपूरक करारों के जरिए काफी फेरबदल कर दिए गए। करार की मीयाद 14 साल बढ़ाकर 10 अगस्त 2012 कर दी गई।
प्राइस वेरिएशन फॉर्मूले को वाहनों के बजाय धातु व एलॉय सब-ग्रुप के थोक मूल्य सूचकांक से जोड़ दिया गया। नतीजा यह हुआ कि 1 अप्रैल 2006 से 31 मार्च 2009 के बीच खरीदे गए वाहनों की किट पर ओएफबी को मूल करार की अपेक्षा 148 करोड़ रुपए ज्यादा देने पड़े। ओएफबी ने इस तरह टाटा और हिंदुजा समूह की दो कंपनियों को 253 करोड़ रुपए का फायदा पहुंचाने को कई तकनीकी आधार पर जायज ठहराने की कोशिश की। लेकिन सीएजी की जांच टीम को वह कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाया। सीएजी ने अपनी वेबसाइट पर लेटेस्ट ऑडिट रिपोर्ट्स में परफॉरमेंस ऑडिट की डिफेंस सेवाओं से संबंधित रिपोर्ट संख्या-15 के अध्याय-7 में ऑर्डनेंस फैक्ट्रियों में वाहनों की खरीद में मची जनधन की इस लूट का पूरा कच्चा-चिट्ठा खोलकर रख दिया है।