बी में सूखा तो दी जा रही ए की बलि

रिजर्व बैंक ब्याज दरों को बराबर बढ़ा रहा है, फिर भी मुद्रास्फीति पर लगाम नहीं लग रही। हां, इससे आर्थिक विकास की रफ्तार पर जरूर लगाम लगती दिख रही है। बाजार को यह कतई पसंद नहीं और वो किसी न किसी बहाने लार्सन एंड टुब्रो, इनफोसिस, रिलायंस इंडस्ट्रीज (आरआईएल), एसबीआई व मारुति सुजुकी जैसी ऊंची विकास दर वाली कंपनियों को भी लपेटे जा रहा है। रिलायंस का स्टॉक दो साल के न्यूनतम स्तर पर आ चुका है। यह पूरे बाजार को दाब रहा है क्योंकि सेंसेक्स में इसका भार सबसे ज्यादा 10.93 फीसदी है।

रिलायंस का भाव अभी बुक वैल्यू के दोगुने से कम है जो साफ दर्शाता है कि कंपनी के बारे में मीडिया में आ रही तमाम रिपोर्टों का असर इस पर पड़ा है। भारती एक्सा में रिलायंस द्वारा 26 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की बात भी बाजार को रास नहीं आई क्योंकि यहां का तो पूरा माहौल ही बिगड़ा हुआ है। हमारे पूंजी बाजार की दयनीय हालत का नमूना यह है कि पेट्रोलियम तेल की विशालकाय व अग्रणी कंपनी रिलांयस बुक वैल्यू के दोगुने से कम भाव पर ट्रेड हो रही है, जबकि सूटकेस बनानेवाली कंपनी वीआईपी इंडस्ट्रीज बुक वैल्यू से 12 गुने पर ट्रेड हो रही है। दरअसल, इसकी प्रतिस्पर्धी सैम्सोनाइट का शेयर 16 के पी/ई पर ट्रेड हो रहा है, जबकि वीआईपी इंडस्ट्रीज 25 के पी/ई पर। निवेशकों को जरूर देखना चाहिए कि इसका कोई तुक है भी कि नहीं।

बी ग्रुप में वोल्यूम इस कदर सूख गया है कि आम निवेशकों ही नहीं, एचएनआई (हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल), डीआईआई (घरेलू निवेशक संस्थाओं) व एफआईआई तक को नकदी जुटाने के लिए ए ग्रुप के मजबूत शेयरों को भी धूल चाटते भाव पर बेचना पड़ रहा है क्योंकि उन्हें कर-अदायगी, रोज-ब-रोज के खर्चों और शेयर व कमोडिटी के डेरिवेटिव सौदों में हुए नुकसान की भरपाई के लिए धन चाहिए।

यह हालत रातोंरात नहीं सुधरने वाली और सूचकांक आधारित शेयरों में भारी बिकवाली से सेंसेक्स व निफ्टी में और गिरावट आ सकती है। लेकिन यकीनन इसका मतलब यह नहीं कि सब खत्म हो गया और अब कोई सूरत नहीं बची। अगर आप अपना दिमाग लगाएं तो इस तरह के बाजार में भी तमाम अवसर मिल जाएंगे। मानसून की सही प्रगति के बावजूद बाजार की मौजूदा हालत व मानसिकता भयंकर निराशा की देन है। निवेशक भी पस्त पड़े हैं। लेकिन सच कहें तो यह दीर्घकालिक निवेशकों के लिए सही भाव पर सही स्टॉक्स खरीदने का सही मौका है।

हम भेड़चाल से अलग, लीक छोड़कर चलने के मजबूत हिमायती हैं। हमें पक्का लगता है कि बाजार अभी मंदी के दौर में प्रवेश कर रहा है। हालांकि कुछ वक्त तक गिरने व उठने का सिलसिला चलता रहेगा। लेकिन कमोडिटी में तेजी का दौर बरकरार है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले क्वांटिटेटिव ईजिंग (क्यूई) या आसान शब्दों में अतिरिक्त नोट छापकर अर्थव्यवस्था में डालने का एक और दौर चलाया जा सकता है जो पहले क्यूई से बड़ा होगा। इससे विश्व स्तर पर अर्थव्यवस्था की हालत सुधर सकती है।

यह सच है कि हवा का रुख बदलने के बाद ही ए ग्रुप के शेयरों में पैसे बनाना संभव हो पाएगा। हमारा मतलब यह है कि बाजार जब यू-टर्न लेगा, तब ये शेयर बहुत तेजी से बढ़ेंगे। मसलन, टाटा स्टील को शुक्रवार तक दबा कर रखा गया था। लेकिन जैसे ही इसने रीवर्सडाले माइनिंग में अपनी हिस्सेदारी 112 करोड़ डॉलर में बेची, इसका मूल्यांकन बदल गया और यह बाजार से आगे निकल गया। सेंसेक्स 0.64 फीसदी गिर गया, लेकिन यह 3.45 फीसदी बढ़कर बंद हुआ।

इसलिए निवेशक यदि ए ग्रुप के शेयरों में बने रहना चाहते हैं तो उन्हें तकलीक सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। टेक्निकल एनालिसिस के आधार पर भी देखें तो बाजार काफी नाजुक अवस्था में है। जापान में भूकंप व सुनामी के वक्त निफ्टी 5330 तक चला गया था। अभी 5366 पर है। आप सभी जानते हैं कि फिजिकल सेटलमेंट के अभाव में बाजार के मतवालेपन पर किसी का वश नहीं चलता। इसलिए अगर यह 5330 का स्तर तोड़ देता है तो 200 अंकों की और गिरावट निफ्टी में आ सकती है। इससे ए ग्रुप के शेयरों को तगड़ी चोट लगेगी।

इसी के साथ आप यह भी देख रहे होंगे कि डीलिस्टिंग की कोशिश में लगी कई कंपनियों के शेयर गिरते बाजार में भी बढ़े जा रहे हैं। डीलिस्टिंग की उम्मीद के बीच टिमकेन इंडिया 52 हफ्ते के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया, जबकि गुडईयर इंडिया भी शिखर से जरा सा नीचे रह गया। बीओसी इंडिया, नोवार्टिस, केन्नामेटल, फेयरफील्ड एटलस, क्लैरिएंट केमिकल्स, एस्ट्राजेनेका फार्मा, एलैंटास बेक, सेंट गोबैन, शार्प इंडिया, फोसेका, जिलेट, प्रॉक्टर एंड गैम्बल, इनिओस एबीएस, ओरैकल, ब्लू डार्ट, 3एम इंडिया, हनीवेल और सिंगर इंडिया कुछ ऐसी कंपनियां जो डीलिस्टिंग की डगर अपना सकती हैं।

असल में लिस्टेड कंपनियों में पब्लिक की हिस्सेदारी कम से कम 25 फीसदी करने की शर्त उन्हें इस डगर पर धकेल रही है। सेबी के इस नियम को लागू करने के लिए उनके पास 9 से 12 महीने ही बचे हैं। प्रवर्तक चाहें तो अपनी हिस्सेदारी बेचकर 75 फीसदी या इससे कम पर ला सकते हैं। लेकिन ज्यादातर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह जी का जंजाल लगता है। वे इसके बजाय मूल कंपनी की हिस्सेदारी बढ़ाकर 90 फीसदी करना चाहती हैं ताकि भारतीय इकाई को स्टॉक एक्सचेंजों से डीलिस्ट करने की राह खुल जाए। असल में 70 के दशक में इन्हें कुछ मजबूरियों के चलते अपने शेयर भारतीय निवेशकों को बेचने पड़े थे। अब इन्हें सेबी के नियम के रूप में शानदार मौका मिल रहा है तो वे शेयर बाजार की गली से खिसक लेना चाहती हैं।

हमारा मानना है कि गुडईयर इंडिया, बीओसी इंडिया, नोवार्टिस, केन्नामेटल, फेयरफील्ड एटलस और क्लैरिएंट केमिकल्स में डीलिस्टिंग की भारी संभावना है। ये कंपनियां गिरते बाजार में निवेशकों को शायद फायदा कमाने का अनोखा मौका दे रही हैं। इसलिए सभी के साथ इन पर खास नजर रखी जानी चाहिए।

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