एक तरफ भारतीय दवा कंपनियां कह रही हैं कि उन्हें विदेशी अधिग्रहण से बचाया जाए। अंतर-मंत्रालयी समूह (आईएमजी) तक ने सिफारिश की है कि दवा उद्यमों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सीमा 100 फीसदी से घटाकर 49 फीसदी कर दी जाए। दूसरी तरफ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने कहा है कि ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है और दवा उद्योग में 100 फीसदी एफडीआई को कहीं से कोई आंच नहीं आने दी जाएगी।
आहलूवालिया ने सोमवार को राजधानी दिल्ली में भारत-अमेरिका में प्रौद्योगिकी सहयोग पर आयोजित बैठक के दौरान कहा, “मुझे नहीं लगता कि कहीं भी कोई ऐसा प्रस्ताव है कि 100 फीसदी विदेशी मालिकाने वाली दवा कंपनियों को विस्तार से रोक दिया जाए या नई दवा परियोजनाओं में विदेशी निवेश न आने दिया जाए। हां, इस मसले पर उठी चिंताओं के बाद योजना आयोग के सदस्य अरुण मारिया की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल जरूर बना दिया गया है जो देखेगा कि कहीं कोई समस्या है कि नहीं या मौजूदा भारतीय दवा कंपनियों के विलय व अधिग्रहण संबंधी नियमों में कोई बंदिश होनी चाहिए या नहीं।”
बता दें कि इस समय कोई भी विदेशी कंपनी भारतीय दवा कंपनी में 100 फीसदी इक्विटी खरीद सकती है। उसे इसके लिए किसी मंजूरी की जरूरत नहीं है। उसे केवल रिजर्व बैंक को इसकी औपचारिक सूचना दे देनी होती है। इसी ढील का फायदा उठाकर तमाम विदेशी दवा कंपनियां भारत के विशाल बाजार पर कब्जा जमाने के लिए देशी कंपनियों के अधिग्रहण का रास्ता अपना रही हैं। वे कोई भी मूल्य-वर्धन या नया दवा मोलिक्यूल न लाकर भारतीय कंपनियों के मौजूदा तंत्र का ही दोहन कर रही हैं। इसी क्रम में 2008 में जापान की दायची सांक्यो ने रैनबैक्सी लैबोरेटरीज का अधिग्रहण कर लिया और 2010 में एब्बट लैबोरेटरीज ने पिरामल हेल्थकेयर का घरेलू फॉर्मूलेशन बिजनेस खरीद लिया। इसी तरह सनोफी अवेंतिस ने शांता बायोटेक, अमेरिका की होस्पिरा ने ऑर्किड केमिकल्स और माइलन इंक ने मैट्रिक्स लैब्स पर अधिकार जमा लिया है।
इस क्रम ने भारतीय दवा कंपनियों को काफी डरा दिया है। उनका प्रतिनिधित्व कर रहे दोनों संगठनों – इंडियन ड्रग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन और इंडियन फार्मास्यूटिकल एलायंस ने चिंता जताई है कि विदेशी कंपनियों द्वारा भारतीय दवा कंपनियों के अधिग्रहण से किसी दिन ऐसी हालत आ सकती है कि वे दवाओं के बहुत ज्यादा मनमाने दाम लगाएं और देशी कंपनियों को हाशिए पर धकेल दें। यहां तक कि औद्योगिक नीति व संवर्धन विभाग (डीआईपीपी) ने भी दवा उद्योग में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते दबदबे पर चिंता जताई है।
इसके बाद अंतर-मंत्रालयी समूह (आईएमजी) ने सिफारिश कर दी कि दवा उद्योग में एफडीआई की सीमा को 100 फीसदी से घटाकर 49 फीसदी कर दिया जाए ताकि अधिग्रहण का कोई खतरा न रहे। स्वास्थ्य, दवा और उद्योग मंत्रालय के प्रतिनिधियों से बने इस समूह ने कहा कि पुरानी कंपनियों में एफडीआई की सीमा के साथ ही पहले सरकार से इजाजत लेने की भी शर्त लगा दी जाए। ऑटोमेटिक रूट से 100 फीसदी एफडीआई की सुविधा एकदम नई परियोजनाओं तक सीमित कर दी जाए।
1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद के बीस सालों में यह पहला मौका था, जब सरकार ने स्वदेशी कंपनियों को बचाने के लिए एफडीआई को घटाने की पेशकश की। यह सिफारिश कैबिनेट की बैठक में रखी भी गई। लेकिन फिर न जाने क्या हुआ कि उसे पुनर्विचार के लिए योजना आयोग के पास भेज दिया गया। अरुण मारिया की अध्यक्षता में बनी समिति इस पर विचार कर ही रही है कि मोटेंक ने आज कह दिया है कि दवा उद्योग में एफडीआई घटाने का कोई प्रस्ताव ही नहीं है। कमाल की बात यह भी है कि मोंटेक को हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहते हैं। शायद कल, मंगलवार को उन्हें इसमें कामयाबी मिल भी जाए।