।।भरत गांधी।। जन लोकपाल यदि वास्तव में जनता का हो तो इसके फायदे सन्देह से परे हैं। लेकिन जन लोकपालवादियों ने अब तक इस पद पर नियुक्ति के जो प्रस्ताव दिए हैं, उसमें यह खतरा है कि प्रस्तावित जन लोकपाल बहुसंख्यक ‘गरीब जन’ द्वारा नियुक्ति नहीं किया जाएगा, अल्पसंख्यक ‘अमीर जन’ द्वारा नियुक्त होगा और अमीर जन की ओर से सरकार, संसद और न्यायपालिका पर शासन करेगा। भ्रष्टाचार में शामिल भारत के किसी भी बडे उद्योगपति को कभी भी सज़ा नहीं हो पायी, नेताओं और अधिकारियों को दण्डित करने के हज़ारों उदाहरण मौजूद हैं। जन लोकपालवादी इस पद पर नियुक्ति का जो प्रस्ताव दे रहे हैं, उसमें इस बात की कोई व्यवस्था नहीं है कि जन लोकपाल का पद धन की धमकी और मीडिया की धमकी से मुक्त होगा। धनवानों व मीडियावानों की धमकी में आ जाने के कारण ही सीबीआई, राज्यों का पुलिस महकमा, आयकर विभाग, विजिलेंस जैसे सभी विभाग भ्रष्टाचार को रोकने में असहाय साबित हुए। इस निराशा ने इन विभागों के कर्मचारियों को भ्रष्ट बनाया।
इन विभागों के ईमानदार व कर्त्तव्यपरायण कर्मचारियों की हमेशा से शिकायत रही है कि नेता लोग उनके काम में दखल देते हैं; इसलिए मज़बूर होकर ये कर्मचारी भ्रष्ट लोगों को सुबूतों के बावज़ूद दण्डित नहीं करवा पाते। नेताओं से अगर पूछो कि वे लोग ऐसा क्यों करते हैं। तो अक्सर तो वे इस सवाल का जवाब टाल जाते हैं। यदि आपको वह अतिविश्वसनीय मानता हो और उसे यह विश्वास हो जाए कि उसका नाम गोपनीय रह जाएगा, तब वह बताता है कि “किसी भी पार्टी में सभी अधिकार पार्टियों के अध्यक्ष के हाथ में है। पार्टियों का संविधान ही ऐसा होता है। पार्टियों के अध्यक्ष उन उद्योगपतियों को भ्रष्टाचार के आरोप में दण्डित होने से बचाते हैं, जो उद्योगपति पार्टी अध्यक्ष को अरबों-खरबों रुपया चन्दा देते हैं।“
इस चन्दे की लगाम से पार्टी अध्यक्ष के काम में उद्योगपति लोग दखल देते हैं। चन्दे के साथ उनकी शर्त रहती है कि वे मंत्रियों व अधिकारियों को भ्रष्ट बनाएंगे, किंतु उन तक कानून के हाथ नहीं पहुंचने चाहिए। दुर्भाग्यवश यदि घोटाला खुल भी जाए तो सज़ा केवल नेताओं व अधिकारियों को मिलनी चाहिए। बडे उद्योगपतियों की ये शर्त जिस पार्टी का मुखिया नहीं मानेगा, उसे चन्दा नहीं मिलेगा। जिस पार्टी को चन्दा नहीं मिलेगा, वह पार्टी इतने सांसद-विधायक नहीं जिता सकती; जितने की ज़रूरत राजसत्ता पाने के लिए ज़रूरी होती है। उद्योगपतियों की भ्रष्ट शर्त जिन पार्टियों के मुखिया मानने को तैयार होते हैं, सरकार केवल उन्हीं पार्टियों की बन सकती है। यह तथ्य सिद्ध हो चुका है। जिन पार्टियों के मुखिया उद्योगपतियों पर भी कानून का राज कायम करने की सोचतै हैं, उन पार्टियों की सरकार बन ही नहीं पाती। जब तक रजनीतिक सुधारों के प्रस्ताव को कार्यांवित करके राजनीति की अर्थव्यवस्था नहीं बनती, तब तक ऐसी पार्टियों की सरकार भविश्य मे भी नही बन सकती।
स्पष्ट है कि चन्दे की ताकत से बडे उद्योगपति सत्ताधारी पार्टियों के अध्यक्षों के काम में दखल देते हैं। जब ऐसे उद्योगपति कभी कानून के जाल में फंसते हैं तो सत्ताधारी पार्टियों के अध्यक्ष मंत्रियों के काम में दखल देकर उद्योगपतियों को बचाते हैं। पार्टियों के अनुचित संविधानों के कारण मंत्रीगण अपनी पार्टी के मुखिया की बात मानकर अपने मातहत अधिकारियों के काम में दखल देते हैं। ऊपर के ओहदों पर विराजमान अधिकारी मज़बूर होकर मंत्री का आदेश मानता है और अपने नीचे के अधिकारियों के काम मे दखल देता है। यह अंतहीन सिलसिला चलता रहता है। अंत में नीचे के अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि भ्रष्टाचारी बनकर ही सुकून से जीना सम्भव है। वे भी भ्रष्टाचार को सभ्यता मानकर काम करने लगते हैं; जिससे आम जनता में आक्रोश पैदा होता है।
इस आक्रोश को कभी जयप्रकाश नारायण भुनाते हैं, कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह भुनाते हैं, कभी टी एन शेषन भुनाते हैं और कभी लोकपालवादी भुनाते हैं। विपक्षी पार्टियां तो इस आक्रोश को सदा से भुनाती रही हैं। इसीलिए लोकपालवादी अपने को अराजनीतिक होने का प्रचार ज्यादा करते हैं। इसके पीछे इनकी रणनीति यह है कि राजनीतिक लोग तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जनभावनाओं को केवल भुनाते हैं, हम तो इन भावनाओं की ताकत से ‘स्वयं सेवा’ करेंगे, राजनीति नहीं करेंगे।
जन लोकपालवादियों के उस मसौदे को ध्यान से देखें तो उनके काम में भी उद्योगपतियों का दखल साफ-साफ दिखाई पडता है। लोकपालवादियों ने लाखों पर्चे लोगों के बीच बांटें। उसमें से जो पर्चा जंतर-मंतर पर धरने के दौरान बडे पैमाने पर बांटा गया, उसका मजमून कुछ इस प्रकार है- “ये संस्था (लोकपाल) निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी। कोई भी नेता या सरकारी अधिकारी जांच की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं कर पाएगा।”
इस पैरा से दो बातें स्पष्ट हैं। पहला यह कि भ्रष्टाचारियों को सज़ा देने की जो जांच प्रक्रिया है, उसको प्रभावित करने वाले नेताओं और अधिकारियों से भी बडी सत्ता कौन है – यह जानकारी लोकपालवादियों को नहीं है। वे यह नहीं जानते कि इन दोनों से भी बडी सत्ता उद्योगपतियों की है जो पैसे की अथाह ताकत से नेताओं और अधिकारियों को प्रभावित करती है। नेता और अधिकारियों की हैसियत इन उद्योगपतियों की परछाईं और कठपुतली भर की है।
लोकपालवादियों के पर्चे से जो दूसरी बात स्पष्ट होती है वह यह है कि अगर उनको मालूम है तो वे लोग यह प्रचार क्यों नहीं कर रहे हैं कि लोकपाल की जो प्रस्तावित संस्था होगी उसकी जांच को प्रभावित करने से नेताओं व अधिकारियों के साथ-साथ उद्योगपतियों को भी रोका जाए। आखिर भ्रष्टाचार रोंकने के सभी शासकीय संस्थाएं जब उद्योगपतियों के दखल के कारण ही निष्फल हुईं हैं तो यह सम्भव हो ही नहीं सकता कि प्रस्तावित लोकपाल के काम में उद्योगपति दखल नहीं देंगे। वे अगर चन्दे से दखल नहीं देंगे तो लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया में दखल देंगे। वे चाहेंगे कि ‘जनता’ के प्रतिनिधि के तौर पर लोकपाल की चयन समिति में जो लोग शामिल किए जाएं, वे भले ही उद्योगपति न हों, किंतु उद्योगपतियों के भ्रष्टाचार को ‘राष्ट्र के विकास के लिए उपयोगी’ मानते हों, घूस देने वाले को पतली गली से भाग जाने को कहते हों और घूस लेने वाले को डंडा लेकर दौडाते हों। विधवा के पेट में बच्चा डालने वाले को बचाते हों और गर्भवती विधवा को फांसी पर चढाते हों। ऐसी सोच के ईमानदार, सादगी पसंद किंतु अयोग्य लोगों की संख्या भारत में करोडों में है। उद्योगपति चन्दे की ताकत से सत्ताधारी पार्टियों के अध्यक्षों पर पहले से ही राज करते रहे हैं, अब तो लोकपाल के पद पर अपनी कठपुतली बैठाकर संवैधानिक संस्थाओं पर भी राज करेंगे।
लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में अगर उद्योगपतियों के दखल को रोंकने के सक्षम उपाय न किए गए तो लोकपाल भ्रष्टाचार रोक पाए या न रोक पाए, लोकतंत्र की हत्या ज़रूर कर देगा। जो लोकतंत्र आज चल रहा है, इसमें लोक ‘तंत्र’ को उतना ही प्रभावित कर पाता है जितना उसके पास पैसा होता है। चूंकि धन का अधिकांश हिस्सा उद्योगपतियों के पास ही होता है, इसलिए इस लोकतंत्र में उद्योगपति ही ‘जनता’ बनकर जनता के नौकरों यानी अधिकारी व मंत्रियों पर राज करते रहे हैं। उद्योगपतियों की कठपुतली जब लोकपाल बनेगा तो देश की असली बहुसंख्यक जनता का गला और भी कस जाएगा।
राज्य का निर्माण करने वाले बहुसंख्यक वोटरों के गले की फांसी को उद्योगपति लोग अपनी पालतू मीडिया के सहारे उनके गले की टाई के रूप में प्रचारित करेंगे। विकास दर और जीडीपी के आकडों की कैसेट को मीडिया की लाउडस्पीकर में लगा कर इतनी जोर से बजायेंगे कि गरीबी, गुलामी, बेरोज़गारी व मंहगाई के दल-दल में छटपटाते देशवासियों की चीखें गुम हो जाएंगी। अंत में लोकतंत्र को ही लोग समस्या का कारण मानने लग जाएंगे और हिंसा के सिवा उनके सामने कोई विकल्प नहीं बचेगा राष्ट्र के चेहरे पर भ्रष्टाचार की जो मक्खी बैठी है, उसे उडाना तो ठीक है लेकिन उस मक्खी पर लोकपालवादियों की गोली चलायी जाएगी तो मक्खी उड जाएगी, राष्ट्र मर जाएगा।
लोकपालवादियों ने अपने मसौदे में उद्योगपतियों के ऊपर अंकुश लगाने का कोई प्रावधान नहीं शामिल नहीं किया है। वे यह भी नहीं बता रहे हैं, कि लोकपाल को उद्योगपतियों के प्रभाव से कैसे बचाया जाएगा? वे यह भी नहीं बता रहे हैं कि यदि लोकपाल भ्रष्ट उद्योगपतियों को दण्डित करने वाले मंत्रियों, अधिकारियों को अपना निशाना बनाएगा तो लोकपाल को दंडित कैसे किया जाएगा? और उसको उसके पद से हटाया कैसे जाएगा? नया लोकपाल फिर उसी मानसिक नस्ल का न हो, इस बात की गारंटी देने वाला प्रावधान लोकपाल बिल में क्या होगा? लोकपालवादी सनक भरी शैली में कहते हैं कि दो साल के अन्दर सभी मुकदमों की जांच पूरी की जाएगी, लेकिन इस जांच की प्रक्रिया क्या होगी – इसका मसौदा नहीं देते। अगर वास्तव में ये लोग काबिल हैं, तो जनता के सामने सबसे पहले जांच की इस प्रक्रिया का मसौदा ही रखना चाहिए था।
भ्रष्टाचार जैसी असली समस्या का नकली समाधान देने का सिलसिला भारत में राजनीतिक आजादी के बाद 63 साल तक चला, आगे कब तक चलेगा? थोडा-सा भी समझदार व्यक्ति जो राजव्यवस्था व अर्थव्यवस्था के आपसी रिश्ते को समझता है वह जानता है कि भ्रष्टाचार का असली समाधान राजनीति के मौलिक सुधार से ही सम्भव है, फिर क्यों इस बात को दबाकर नकली दवा का प्रचार क्यों किया जा रहा है?
14 वीं लोकसभा में 137 सांसदों ने राजनीतिक सुधारों का प्रस्ताव पेश किया था। हालत यह है कि सभी उद्योगपति एकजुट होकर पार्टियों के अध्यक्षों को धमका रहे हैं। इस प्रस्ताव पर संसद में बहस नहीं होने दे रहे हैं. वित्त मंत्रालय से बार-बार इस प्रस्ताव के खिलाफ वीटो करवा रहे हैं। जो वर्ग देश में राजनीतिक सुधारों का विरोध करने में लगा हो, उस पर कौन विश्वास करेगा कि वही वर्ग लोकपाल के माध्यम से भ्रष्टाचार दूर करना चाहता है? भारत में संवैधानिक संस्थाओं के शिखर पर बैठे लोगों को उद्योगपतियों और मीडिया के दुष्प्रचार व धमकी के सामने झुकना नहीं चाहिए। अगर ज़रूरी हो तो अपने पद से त्यागपत्र देकर निजी मीडिया के बगैर अपने संगठन के माध्यम से जनमानस के बीच सच्चाई बताना चाहिए।
यह वक्त देश की जनता के साथ आर्थिक व सांस्कृतिक बलात्कार करने वालों के खिलाफ परा-राजनीतिक गठबन्धन बनाने का है जिससे भ्रष्टाचार के साथ-साथ पीढी-दर-पीढी पीडित देशवासियों की अन्य समस्याओं को भी हल किया जा सके। भ्रष्टाचार के शोरगुल में जनता की आर्थिक व सांस्कृतिक चीखों को पहले भी दबाया जाता रहा है। एक बार फिर यह प्रयास हो रहा है। आज उन लोगों को गोलबन्द होने की ज़रूरत है जो शोरगुल के दबाव में नहीं, बल्कि अपने विवेक व दिमाग से सोचते हैं ताकि इतिहास में फिर वही बात दोहराने से बचा जा सके।
– लेखक एक राजनीतिक सुधारक हैं। उनके विचार आप वोटर्स पार्टी और राजनीति सुधारो अभियान पर पढ़ सकते हैं।