ज़िंदगी कभी एकसार नहीं हो सकती। उसमें उतार-चढ़ाव आते ही हैं। इसी तरह शेयर बाजार और अलग-अलग शेयरों के साथ उतार-चढ़ाव बड़ा स्वाभाविक है। यहां से कमाने के लिए बड़ा धैर्य रखना पड़ता है। खासकर तब, मामला लांग टर्म या लंबे समय का है। हमने इसी कॉलम में ग्रेफाइट इंडिया के बारे में सबसे पहले 4 मई 2010 को लिखा था। तब इसका दो रुपए अंकित मूल्य का शेयर 104 रुपए के आसपास चल रहा था और उसका पी/ई अनुपात 6.86 था। दोबारा करीब साल भर पहले 18 फरवरी 2011 को लिखा। तब इसका भाव 91.50 रुपए था और शेयर 9.75 के पी/ई पर ट्रेड हो रहा था। फिलहाल यह गिरता-गिरता 76 रुपए के आसपास आ चुका है और शेयर 8.85 के पी/ई अनुपात पर ट्रेड हो रहा है।
परसों 25 जनवरी, 2012 को ग्रेफाइट इंडिया का शेयर बीएसई (कोड – 509488) में 75.85 रुपए और एनएसई (कोड – GRAPHITE) में 76.20 रुपए पर बंद हुआ है। दो साल में करीब 25 फीसदी से ज्यादा का नुकसान! बैंक की एफडी में लगाया होता तो इस पर दो साल में 18 फीसदी ब्याज मिल गया होता। क्या अब ग्रेफाइड इंडिया से निकल जाने में ही समझदारी नहीं है? कतई नहीं। हमने शुरूआत में ही लिखा था कि ऐसी कंपनियों में लंबे समय के लिए निवेश किया जाना चाहिए। और, लंबे समय का मतलब कम से कम पांच से दस साल होता है। जिन लोगों ने भी के के बांगुर की इस कंपनी में निवेश किया है, उसने हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे इसमें बने रहें, क्योंकि कंपनी बड़े ही ठोस धरातल पर खड़ी है और यह आपका धन अगले चार-पांच साल में दो से तीन गुना कर सकती है।
ग्रेफाइट इंडिया दुनिया में इलेक्ट्रोड बनानेवाली पांचवीं सबसे बड़ी कंपनी है। भारत के ग्रेफाइट इलेक्ट्रोड बाजार का तकरीबन आधा हिस्सा इसके कब्जे में है। इलेक्ट्रोड का मुख्य इस्तेमाल स्टील बनाने के दौरान इलेक्ट्रिक आर्क फरनेस (ईएएफ) में होता है। दुनिया में इन इलेक्ट्रोडों को बनाने की कुल क्षमता का तकरीबन 6.5 फीसदी भाग कंपनी के पास है। कंपनी ने शुरुआत 1967 में अमेरिका के ग्रेट लेक्स कार्बन कॉरपोरेशन के साथ लेकर की थी। अभी उसके भारत में तीन संयंत्र – दुर्गापुर, बेंगलुरु व नासिक में हैं, जबकि एक संयंत्र जर्मनी के नर्नबेर्ग इलाके में है।
चालू वित्त वर्ष 2011-12 में अब तक कंपनी का कामकाज बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है। जून में उसका शुद्ध लाभ 7.21 फीसदी बढ़ा था। लेकिन सितंबर तिमाही में 14.86 फीसदी घट गया। इसके बावजूद कंपनी अपना मूलाधार मजबूर करती जा रही है। वित्त वर्ष 2005-06 में उसका ऋण-इक्विटी अनुपात 1.3 हुआ करता था। अब वह ऋण का बोझ घटाते-घटाते इसे महज 0.24 पर ले आई है। कंपनी अपनी उत्पादन लागत घटाने के हरसंभव उपाय कर रही है। इन सारे खर्चों के बीच कंपनी लगातार लाभांश दे रही है। पिछले दोनों ही सालों में उसने दो रुपए के शेयर पर 3.50 रुपए (175 फीसदी) का लाभांश दिया है।
दिसबर 2011 तक की स्थिति के अनुसार उसकी कुल 39.08 करोड़ रुपए की इक्विटी में प्रवर्तकों का हिस्सा 62.23 फीसदी है जिसमें से 57.32 फीसदी भारतीय और 4.91 विदेशी प्रवर्तकों के पास है। पब्लिक के 37.77 फीसदी हिस्से में एफआईआई के पास 14.33 फीसदी और डीआईआई के पास 6.07 फीसदी शेयर हैं। इन दोनों ही तरह के संस्थागत निवेशकों ने पिछली दो तिमाहियों में अपनी हिस्सेदारी घटाई है। हो सकता है कि शेयर के गिरने की एक वजह यह भी हो।
इस समय कंपनी के कुल शेयरधारकों की संख्या 1,12,308 है। इसमें से 1,10,196 (98.12 फीसदी) एक लाख रुपए से कम लगानेवाले छोटे निवेशक हैं जिनके पास कंपनी के 8.23 फीसदी शेयर हैं। बड़े निवेशकों के पास बड़े सलाहकार होते हैं। लेकिन चैनलों व एनालिस्टों के भरोसे टिके इन छोटे निवेशकों को हमारी सलाह है कि वे इसमें कई साल तक बने रहें और तब तक हर साल सौ फीसदी से ज्यादा लाभांश पकड़ते रहे। कंपनी में एक फीसदी से ज्यादा शेयरधारिता वाले निवेशकों की संख्या दस है जिनके पास उसके 18.05 फीसदी शेयर हैं। इनमें ब्रोकरेज फर्म सीएलएसए (2.54 फीसदी), म्चूचुअल फंड फिडेलिटी नॉर्थस्टार (4.47 फीसदी और जीवन बीमा कंपनी एलआईसी (2.31 फीसदी) शामिल है।