सरकार और रिजर्व बैंक, दोनों चाहते हैं कि खाने-पीने की चीजों के दाम मुद्रास्फीति के लक्ष्य से हटा दिए जाएं क्योंकि मौद्रिक नीति से मांग घटाने का मसला हल किया जा सकता है, सप्लाई बढ़ाने का नहीं। खाद्य वस्तुओं के दाम तो सप्लाई बढ़ाकर ही घटाए जा सकते हैं, जिस पर न रिजर्व बैंक का वश है और न ही सरकार का। दरअसल, जब जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा बनता जा रहा है, तब भी सरकार कृषि को भगवान भरोसे छोड़े हुए है। मानसून अच्छा तो अनाज, तेल-तिलहन व दाल के दाम कम, नहीं तो आग लगी रहेगी। ज़मीन के अंदर का पानी सूखता जा रहा है, लेकिन पंजाब-हरियाणा के किसान जमकर धान पैदा किए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फरवरी 2018 में ही टमाटर, प्याज व आलू के दामों में समता लाने की ‘टॉप’ स्कीम घोषित की थी। लेकिन इस स्कीम का कहीं कोई असर नहीं दिखता। ऐसी ही विफलताओं से मुंह छिपाने के लिए सरकार कोर मुद्रास्फीति की शरण में जाने को आतुर है क्योंकि कोर मुद्रास्फीति में खाने-पीने की चीजों की ही नहीं, पेट्रोल-डीजल व गैस जैसे ईंधन की कीमतें भी नहीं गिनी जातीं। यह अरसे से 3% की रेंज में है। मगर यह डेरिवेटिव या छाया है, असली काया नहीं। अब बुधवार की बुद्धि…
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