यहां अपने ही इतने उलझाव हैं कि दूसरों के बारे में कैसे सोचें? इसी सोच में अपनी ही नाक देखते रह जाते हैं हम। नहीं समझ पाते कि दूसरों के बारे में सोचने-देखने से हमें ऐसा आईना मिलता है जहां हमारी नजर के तमाम धोखे मिट जाते हैं।
2012-04-17
यहां अपने ही इतने उलझाव हैं कि दूसरों के बारे में कैसे सोचें? इसी सोच में अपनी ही नाक देखते रह जाते हैं हम। नहीं समझ पाते कि दूसरों के बारे में सोचने-देखने से हमें ऐसा आईना मिलता है जहां हमारी नजर के तमाम धोखे मिट जाते हैं।
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