इस समय देश के भीतर और दुनिया के वित्तीय बाजारों में जैसी अनिश्चितता चल रही है, उसकी वजह से भारतीयों ने शेयर बाजार में निवेश बेहद घटा दिया है। वैश्विक स्तर की निवेश व सलाहकार फर्म मॉरगन स्टैनले की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक चालू साल 2011 में भारतीय लोगों ने अपनी कुल आस्तियों का बमुश्किल 4 फीसदी इक्विटी बाजार में लगा रखा है।
रिपोर्ट बताती है कि पिछले चालीस सालों में इतना कम निवेश केवल दो बार और रहा है। एक बार 1971 और दूसरी बार 1985 में। इन चौदह सालों के दरम्यान निवेश का माहौल दबा-दबा सा था। इन दोनों ही मौकों पर युद्ध, पेट्रोलियम तेल का संकट या कृषि व औद्योगिक उत्पादन में ठहराव जैसे असामान्य हालात रहे हैं। लेकिन इस बार ऐसा कुछ भी नहीं है। मानसून ठीकठाक है। औद्योगिक उत्पादन भी पटरी पर है। बस देश के अंदर और बाहर अनिश्चितता है जो निवेशकों को मथे जा रही है।हालांकि जानकारों का कहना है कि शेयर बाजार जिस तरह विदेशी संस्थागत निवेशको (एफआईआई), घरेलू निवेशक संस्थाओं (डीआईआई) और ऑपरेटरों का खिलौना बन गया है, उससे भी आम निवेशक बाजार के कन्नी काटने लगे हैं। एक और बड़ी वजह यह है कि पिछले कुछ सालों में आए ज्यादातर शुरुआती पब्लिक ऑफर धांधली के शिकार हुए हैं। लिस्टिंग के दिन शेयरों के भाव को चढ़ा दिया जाता है। फिर वे डूब जाते हैं।
मजबूत सरकारी कंपनियों के शेयर भी पब्लिक इश्यू के मूल्य के बहुत नीचे चल रहे हैं। इन सारी चीजों ने निवेशकों के भरोसे को चकनाचूर कर दिया है। यही वजह कि 1992 में जहां कम से कम दो करोड़ निवेशक शेयर बाजार में धन लगाते थे, वहीं इनकी वास्तविक संख्या अब 30-40 लाख तक सिमट गई है। हालांकि कुल सक्रिय डीमैट खातों की संख्या 1.95 करोड़ के आसपास चल रही है।
बैंक ऑफ अमेरिका-मेरिल लिंच के भारत प्रमुख काकु नखाते ने दो दिन पहले मुंबई में आयोजित वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम के सम्मेलन में आश्चर्य जताया था कि बचत के मजबूत संस्कार व संस्कृति के बावजूद भारत में वित्तीय उत्पादों की पहुंच मात्र 9.6 फीसदी आबादी तक है। रिजर्व बैंक भी बार-बार इस तथ्य को सामने लाता रहा है कि देश की 40 फीसदी आबादी अभी तक बैंक खातों से महरूम है।