अमेरिका में पचास लाख करोड़ डॉलर ईमानदार मेहनत और बचत से आए होते तो आज दुनिया के हालात कुछ और ही होते। तब, फेडरल रिजर्व को ब्याज दर को असहज तरीके से शून्य या उसके पास रखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। पिछले दस सालों में उसकी इस नीति के कारण अमेरिका के बचतकर्ताओं को करीब आठ लाख करोड़ डॉलर गंवाने पड़े हैं। ऊपर से सस्ता अमेरिकी धन वैश्विक बाजारों को फुलाए पड़ा है। अब बुधवार की बुद्धि…औरऔर भी

सामान्य हालात में स्वस्थ अर्थव्यवस्था के बीच लोग काम करते, बचाते और पाई-पाई जोड़कर दौलत बनाते हैं। लेकिन आज की अर्थव्यवस्था अलग है खासकर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यस्था, अमेरिका। वो उधार पर बढ़ी जा रही है, न कि बचत की बदौलत। वहां दौलत नहीं, ऋण का बोझ बनाया जा रहा है। 1980 से लेकर अब तक अमेरिका में असल दम के ऊपर 50 लाख करोड़ डॉलर का ऋण चढ़ाया जा चुका है। अब मंगल की दृष्टि…औरऔर भी

आज की ग्लोबल दुनिया में भारत जैसे बाज़ार अमेरिका, यूरोप, जापान व चीन के हालात से खूब प्रभावित होते हैं। फेडरल रिजर्व ने तय किया कि ब्याज दरों को सामान्य स्तर पर लाने में हड़बड़ी नहीं बतरेगा तो डाउ जोन्स सूचकांक दो दिन में 1.6% उछल गया जबकि अमेरिकी कंपनियों का लाभ तीन तिमाहियों से घट रहा है और औसत अमेरिकी परिवार की आय दस साल पहले से भी कम है। अब नज़र सोमवार के व्योम पर…औरऔर भी

पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं। लेकिन अच्छी कंपनियों को निखरने में चार-पांच साल लग जाते हैं। मगर, बाज़ार की नज़र में चढ़ते ही तमाम लोग उन्हें पकड़ने लगते हैं और उनके शेयर उठने लगते हैं। स्मॉल-कैप कंपनियों के साथ यही होता है। अंतर्निहित ताकत उन्हें बड़ा बनाती जाती है। धीरे-धीरे एक दिन वे साधारण निवेशक की पहुंच से दूर चली जाती हैं। तथास्तु में आज एक कंपनी जो फिलहाल निखरने के मुहाने पर है।औरऔर भी