पशु वृत्तियां हम पर उसी हालत में हावी होती हैं जब हम सामाजिक कम और एकाकी ज्यादा होते हैं। इसलिए अपने अंदर के पशु को इंसान बनाना है तो हमें ज्यादा से ज्यादा सामाजिक होना पड़ेगा।और भीऔर भी

पार्टी, परिवार या संगठन में एक के पीछे जीरो लगाने से कुछ नहीं होता। एक और एक मिलकर ग्यारह भी नहीं बनता। हर किसी को अपने दांते घिसने पड़ते हैं। तब जाकर वह मशीन में फिट बैठता है।और भीऔर भी

अच्छे विचार मेहमान सरीखे होते हैं। आए, रहे और चले गए। उन्हें अपनाना और अपनी सोच का हिस्सा बनाना आसान नहीं। बहुत सारी रगड़-धगड़ के बाद ही ये मेहमान घर के सदस्य बन पाते हैं।और भीऔर भी

मन में आए भाव-विचार के माफिक शरीर रसायन बनाता है और शरीर में पहुंचे रसायन मन को घुमा डालते हैं। फिर, रसायन तो रक्त के साथ पोर-पोर तक जाता है तो मन भी हर पोर तक पहुंच जाता होगा!और भीऔर भी

मंजिल दूर है। सफर लंबा है। चढ़ाई तीखी है। फिर इतना भारी बोझ क्यों? ईर्ष्या-द्वेष, दुश्मनी, बदला, देख लेंगे, निपट लेंगे। मन में इतना कचरा! अरे, फेंकिए ये बोझ और मुक्त मन से उड़ जाइए।और भीऔर भी

हम सब रहते तो एक आकाश के नीचे हैं। लेकिन सबका क्षितिज एक नहीं होता। कोई कहीं तक देख पाता है तो कोई कहीं तक। हम चाहें तो अध्ययन, चिंतन व मनन से अपना क्षितिज बढ़ा सकते हैं।और भीऔर भी

हमारी नजरों में चढ़े हो तभी तो इतने बड़े हो। समझ बदल गई, अहसास बदल गया और हमने अपनी नजरों से गिरा दिया तो कहीं के नहीं रहोगे भाई। फिर काहे इतना इतराते हो, शान बघारते हो!और भीऔर भी

वैसे तो सहजता सबसे बड़ा अनुशासन है। लेकिन अनुशासन यूं ही सहज नहीं बनता। शुरू-शुरू में उसे आरोपित करना पड़ता है। बाद में एक दिन वह साइकिल के पैडल चलाने जैसा सहज बन जाता है।और भीऔर भी

हमारे जमाने का दस्तूर ही ऐसा है कि एक के नुकसान में दूसरे का फायदा है। हर मोड़ पर ठग लूटने के लिए तैयार बैठे हैं। हमारा बाजार अभी बहुत कच्चा है। इसलिए ज्यादा सच्चा होना अच्छा नहीं।और भीऔर भी

गुरु की जरूरत पहले भी थी, अब भी है, कल भी रहेगी। सच्चा गुरु उस पारसमणि की तरह है जिसका हाथ लगते ही पत्थर भी सोना बन जाता है। लेकिन आज तो गुरु कम, गुरुघंटाल ही ज्यादा मिलते हैं।और भीऔर भी