आस किसान, स्वास्थ्य, उद्यमशीलता की

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने चालू वित्त वर्ष 2020-21 में देश का जीडीपी कितना रह सकता है, इसका पहला अग्रिम अनुमान पेश कर दिया है। उसका कहना है कि मौजूदा मूल्य पर हमारी अर्थव्यवस्था का आकार पिछले साल के 203.40 लाख करोड़ रुपए से घटकर इस बार 194.82 करोड़ रुपए रह सकता है, जबकि बजट अनुमान 224.89 लाख करोड़ रुपए का था। यानी, पिछले साल से 8.58 लाख करोड़ रुपए और इस साल के बजट अनुमान से पूरे 30.07 लाख करोड़ रुपए कम! हालांकि मुद्रास्फीति का असर निकाल दें तो हमारे जीडीपी में गिरावट का अनुमान 7.73 प्रतिशत का है।

एनएसओ का दूसरा अग्रिम अनुमान 26 फरवरी को आएगा। उससे पहले 1 फरवरी को आम बजट आना है तो वित्त मंत्रालय को उसका सारा हिसाब-किताब एनएसओ के पहले अग्रिम अनुमान के आधार पर करना होगा। इसलिए हम कह सकते हैं कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अगर नए वित्त वर्ष 2021-22 में 12 प्रतिशत वास्तविक विकास दर का लक्ष्य भी रखा, तब भी हमारा जीडीपी 2019-20 की बनिस्बत मात्र 3.34 प्रतिशत बढ़ेगा। वाकई, जिस तरह कोरोना हमारा पूरा एक साल खा गया है, उसमें अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना आर्थिक ही नहीं, बहुत बड़ी राजनीतिक चुनौती भी है।

वित्त मंत्री अगर बजट का फोकस किसानों पर नहीं रखतीं तो किसान असंतोष की मौजूदा राजनीतिक चुनौती को सुलझाने से चूक जाएंगी। दरअसल, मसला महज न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का ही नहीं, बल्कि दशकों से चली आ रही खाद्यान्नों के आयात-निर्यात व मार्केटिंग की संपूर्ण नीति का भी है। भारत, अमेरिका व चीन समेत दुनिया के 37 देशों के संगठन ओईसीडी की अध्ययन रिपोर्ट का खुलासा है कि साल 2000 से 2017 तक के सत्रह सालों में भारत के किसानों को सरकारी नीतियों के चलते 45.05 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। सवाल उठता है कि हर साल लाखों करोड़ रुपए के ग्रामीण व कृषि बजट और हज़ारों करोड़ रुपए की खाद सब्सिडी के बावजूद खेती घाटे का सौदा क्यों बन गई है? बता दें कि चालू वित्त वर्ष 2020-21 में कृषि व ग्रामीण विकास का बजट 2.83 लाख करोड़ रुपए का था, जबकि खाद सब्सिडी के लिए 88,309 करोड़ रुपए दिए गए हैं। 15 लाख करोड़ रुपए के कृषि ऋण की बौछार ऊपर से। आखिर इतना सारा धन जाता कहां है? वित्त मंत्री को इस बार नीर-क्षीर विवेक दिखाकर पारदर्शिता लानी होगी।

दूसरी चुनौती है स्वास्थ्य की। कोरोना महामारी ने हमारी इस कमज़ोरी को बहुत शिद्दत से उभारा है। देश में कई सालों से स्वास्थ्य पर केंद्र सरकार का खर्च जीडीपी के 1.15 प्रतिशत पर अटका हुआ है। राज्यों का भी खर्च मिला दें तो भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर जीडीपी का 3.6 प्रतिशत ही खर्च करता है। वहीं, चीन इन सेवाओं पर जीडीपी का 5 प्रतिशत, ब्राज़ील 9.2 प्रतिशत, जापान 10.9 प्रतिशत और जर्मनी जीडीपी का 11.2 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि विश्व का औसत जीडीपी के 6.1 प्रतिशत का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई साल पहले स्वास्थ्य पर केंद्र सरकार का खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 2.5 प्रतिशत करने का वादा किया था। अगर ऐसा हो चुका होता तो हम देश में कोरोना को बढ़ने से पहले ही दबोच सकते थे। इसलिए इस बार बजट में स्वास्थ्य को विशेष प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

वित्त मंत्री से इस बार बजट में तीसरी व अंतिम अपेक्षा है कि वे उदयमशीलता की राह की हर बाधा को जड़-मूल से खत्म कर देंगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार पिछले कई साल से कौशल व उद्यमशीलता विकास के कार्यक्रम चला रही है। लेकिन आज भी बिजनेस करने का मकड़जाल बेहद उलझा हुआ है। उद्योग जगत को कर्मचारी उपलब्ध कराने का बिजनेस कर रही मशहूर कंपनी टाइमलीज़ सर्विसेज़ के चेयरमैन मनीष सभरवाल ने कुछ महीने पहले एक वेबिनार में बताया था कि देश में नियोक्ता को इस समय 1500 से ज्यादा कानूनों का पालन करना होता है, करीब 57,000 कम्प्लायंस पूरी करनी होती है जिसमें से लगभग 8000 ऐसी हैं जिन्हें न पूरा करने पर जेल हो सकती है। ऊपर से हर साल 3100 से ज्यादा फाइलिंग करनी होती है जो कभी-कभी दिन में आठ बार बदल दी जाती हैं।

बड़ी कंपनियां इस नौकरशाही मकड़जाल से निपट सकती हैं। लेकिन मध्यम, लघु व सूक्ष्म उद्यमों (एमएसएमई) के लिए यह दमघोंटू है। यह सच है कि भारत बिजनेस करने की आसानी से संबंधित विश्व बैंक की रैंकिंग में 2014 से 2019 के बीच 142वें स्थान से छलांग लगाकर 63वें स्थान पर पहुंच गया है। लेकिन दिक्कत यह है कि विश्व बैंक की रैंकिंग मात्र चार महानगरों – मुंबई, दिल्ली, कोलकाता व बेंगलुरु के डेटा से निकाली जाती है, जबकि हमारे उद्यमी इनसे बाहर दूरदराज़ के इलाकों तक फैले हुए हैं।

[यह लेख सोमवार 11 जनवरी, 2020 को दैनिक जागरण के मुद्दा पेज़ पर छप चुका है]

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