देश में एक बार फिर से बच्चों के गायब होने की घटनाएं सामने आ रही हैं। इन घटनाओं के आधार पर गौर करें तो बड़े शहरो में स्थिति ज्यादा भयावह है। गैर-सरकारी संस्थाओं का अनुमान है कि भारत में हर साल 45000 बच्चे गायब हो रहे हैं। साल 2007 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश में सबसे अधिक बच्चे झारखंड, छत्तीसगढ़, आध्र प्रदेश, बिहार और उड़ीसा से गायब हो रहे हैं।
2001 की जनगणना के आंकड़ों के जोड़-घटाने में 7.2 करोड़ बच्चे लापता पाए गए। एक आकड़े के मुताबिक 8.5 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते। दूसरे आकड़े में 5 से 14 साल के 1.3 करोड़ बच्चे मजदूर हैं। अगर 8.5 करोड़ में से 1.3 करोड़ घटा दें तो 7.2 करोड़ बचते हैं। यह उन बच्चों की संख्या है, जो न छात्र हैं, न ही मजदूर। तो फिर ये क्या हैं, कहां हैं और कैसे हैं? इसका हिसाब भी किसी किताब या रिकार्ड में दर्ज नहीं मिलता है। इस 7.2 करोड़ के आकड़े में 14 से 18 साल तक के बच्चे नहीं जोड़े गए हैं। अगर इन्हें भी जोड़ दें तो देश के बच्चों की हालत और भी बदतर नजर आएगी।
भारत में बच्चों की उम्र को लेकर अलग-अलग परिभाषाएं हैं। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में बच्चों की उम्र जन्म से 18 साल तक रखी गई है। भारत में बच्चों के उम्र की सीमा 14 साल ही है। मगर अलग-अलग अधिनियमों के मुताबिक बच्चों की उम्र बदलती जाती है। जैसे किशोर-न्याय अधिनियम, 2000 में अधिकतम 18 साल, बाल-श्रम अधिनियम, 1886 में अधिकतम 14 साल, बाल-विवाह अधिनियम में लड़के के लिए न्यूनतम 21 साल और लड़की के लिए न्यूनतम 18 साल की उम्र तय की गई है। खदानों में काम करने की उम्र 15 और वोट देने की न्यूनतम उम्र 18 साल रखी गई है। इसी तरह शिक्षा के अधिकार कानून में बच्चों की उम्र 6 से 14 साल रखी गई है।
इस तथ्य को 2001 की जनगणना के उस आकड़े से जोड़कर देखना चाहिए, जिसमें 5 साल से कम उम्र के 6 लाख बच्चे घरेलू कामकाज में उलझे हुए हैं। कानून के ऐसे भेदभाव से अशिक्षा और बाल मजदूरी की समस्याएं उलझती जाती हैं. सरकारी नीति और योजनाओं में भी बच्चों की उम्र को लेकर उदासीनता दिखाई देती है। 14 साल तक के बच्चे युवा-कल्याण मंत्रालय के अधीन रहते हैं. मगर 14 से 18 साल वाले बच्चे की सुरक्षा और विकास के सवाल पर चुप्पी साध ली जाती है। किशोर बच्चों की हालत भी बहुत खराब है। 2001 की जनगणना में किशोर बच्चों की संख्या 22 करोड़ 50 लाख है। यह कुल जनसंख्या का 22 फीसदी हिस्सा है। इसमें भी 53 फीसदी लड़के और 47 फीसदी लड़किया हैं। यह सिर्फ संख्या का अंतर नहीं है, असमानता और लैंगिक-भेदभाव का भी अंतर है।
2001 की जनगणना में जन्म से 5 साल तक की उम्र वालों का लिंग-अनुपात 100-879 है, जबकि 15 से 19 साल वालों में यह 1000-858 है। जिस उम्र में लिंग-अनुपात सबसे खराब है, उसके लिए अलग से कोई रणनीति बननी थी। मगर हमारे देश में उम्र की जरूरत और समस्याओं को अनदेखा किया जा रहा है। बात साफ है कि बच्चियां जैसे-जैसे किशोरिया बन रही हैं, उनकी हालत बद से बदतर हो रही है. देखा जाए तो बालिका शिशु बाल-विभाग, महिला व बाल-विकास के अधीन आता है, मगर एक किशोरी न तो बच्ची है न ही औरत। इसलिए इसके लिए कोई विभाग या मंत्रालय जिम्मेदार नहीं होता। इसलिए देश की किशोरियों को सबसे ज्यादा उपेक्षा सहनी पड़ रही है।
ऐसा नहीं है कि बच्चों के गुम होने जैसी समस्या से अकेले भारत ही जूझ रहा है। दुनिया के विकासशील देशों से लेकर विकसित देशों से भी हर साल लाखों की संख्या में बच्चे गायब हो रहे हैं। ब्रिटेन में हर साल करीब 13000 बच्चों के लापता होने की घटनाएं सामने आईं हैं. चीन में 2000 में हुई जनगणना के दौरान बीते 10 सालों में 3.7 करोड़ बच्चे गायब पाए गए। अफ्रीकी देशों की हालत भी इससे अलग नहीं है। रिकॉर्ड बताते हैं कि बेल्जियम में हर साल 2928 और रोमानिया में 2354 बच्चे गायब होते हैं, जबकि फ्रांस में सालाना 706 बच्चे गायब हो जाते हैं। अमेरिकी बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं और अमेरिकी सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2007 में यहां 4802 बच्चों के गायब होने की सूचना पुलिस को थी। यहां कई हाई प्रोफाइल बच्चे भी गायब हुए और सालों बाद भी उनका कोई अता-पता नहीं चला। बच्चों के गायब होने के ये सारे आंकड़े पुलिस द्वारा दिए जाते हैं। मगर ज्यादातर मामलों को पुलिस दर्ज ही नहीं करती या उन तक पहुंचती ही नहीं है।
ऐसे में सवाल सिर्फ यह नहीं है कि बच्चे गायब हो रहे है बल्कि सवाल यह भी है कि बच्चे कहां जा रहे हैं? रिकॉर्ड बताते हैं कि ज्यादातर गायब हुए बच्चों से या तो मजदूरी कराई जाती है या उन्हें सेक्स वर्कर बना दिया जाता है। बड़े शहरों के भीतर खेलने-कूदने की उम्र वाले बच्चों को बड़ी संख्या में भीख मांगने के लिए भी मजबूर किया जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन भले ही जून 1999 से ही बाल श्रम को खत्म करने के लिए कमर कस चुका हो मगर अब भी करोड़ों बच्चे जीविका चलाने के लिए बाल मजदूरी कर कर रहे हैं। भारत में दुनिया भर के मुकाबले सबसे ज्यादा बाल श्रमिक हैं। देश में 5 से 14 साल के तकरीबन 1 करोड़ बच्चे घातक और जानलेवा पेशे में लगे हुए हैं। 12 जून को बाल श्रम के खिलाफ विश्व दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, आईएलओ ने अपनी रिपोर्ट में माना है कि 1999 से आर्थिक गतिविधियों में लिप्त बच्चों की संख्या भले ही घटी हो मगर अब भी 5 से 14 साल के 16.5 करोड़ बच्चे मजदूर हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे शिक्षा से वंचित हैं और खतरनाक स्थितियों में काम करते हैं। इनमें से कुछ के साथ गुलामों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है, जिन्हें उनके गरीब माता-पिता के ऋणों को चुकाने के बदले बेच दिया जाता है।
बाल सैनिकों की समस्या को भी बाल श्रम के खिलाफ विश्व दिवस पर पहचाना गया है, जो बाल श्रम के सबसे बुरे रूपों में से एक है। सयुंक्त राष्ट्र संघ बाल कोष के अनुसार दुनिया भर में करीब तीन लाख बच्चे 30 सशस्त्र संघर्षो में शामिल हैं, जिनमें 7 या 8 साल के छोटे बच्चे भी हैं। हालांकि ज्यादातर बाल सैनिकों को जबरन लड़ाई में झोंका जा रहा है। कई से खानसामों, चौकीदारों, संदेशवाहकों या जासूसों का काम लिया जाता है। लड़का हो या लड़की दोनों का ही बाल मजदूर के तौर पर अक्सर यौन शोषण किया जाता है और बहुधा इसका परिणाम अवांछित गर्भधारण और यौन रोगों में होता है।
– शिरीष खरे (लेखक बाल अधिकार संस्था चिल्ड्रेन राइट्स एंड यू – क्राई से जुड़े हुए हैं)