आर्थिक विवेक कहता है कि किसानों की कर्जमाफी गलत है। रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल से लेकर देश के सबसे बड़े बैंक, एसबीआई की चेयरमैन अरुंधति भट्टाचार्य तक इसका विरोध कर चुकी हैं। लेकिन राजनीतिक विवेक कहता है कि चुनावी वादा फटाफट पूरा कर दिया जाए। इसलिए अगर योगी सरकार ने भाजपा के लोक संकल्प पत्र के वादे को पूरा करते हुए पहली कैबिनेट बैठक में ही पांच एकड़ तक की जोतवाले 94 लाख लघु व सीमांत किसानों के 36,359 करोड़ रुपए के ऋण माफ कर दिए तो इसे विवेकसम्मत ही माना जाएगा। प्रदेश सरकार बैंकों का सारा ऋण अपने खाते से चुकाएगी और केंद्र से एक धेले की भी मदद नहीं लेगी।
इस तरह चुनाव जीतनेवाली पार्टी का वादा पूरा हुआ और बैंकों का फंसा हुआ ऋण भी निकालने का इंतज़ाम हो गया। फिर आर्थिक विवेक और राजनीतिक विवेक में काहे का टकराव! महाराष्ट्र भी किसानों के 1.14 लाख करोड़ रुपए के कर्ज माफ करने की तैयारी में है। उधर, मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को निर्देश दिया है कि वो लघु व सीमांत किसानों की कर्जमाफी स्कीम राज्य के सभी किसानों पर लागू करे। इस लहर का अगला पड़ाव पंजाब होगा क्योंकि कैप्टन अमरिंदर की कांग्रेस सरकार ने भी इसका चुनावी वादा किया था।
सीधा सवाल, क्या कर्जमाफी किसानों की समस्या का समाधान है? कतई नहीं। अगर होता तो यह समस्या तभी सुलझ गई होती, जब तब की यूपीए सरकार ने वित्त वर्ष 2008-09 में राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के 52,517 करोड़ रुपए के कर्ज माफ कर दिए थे। दरअसल, हमारे किसानों की हालत छेदों से भरी बाल्टी जैसी हो गई है जिसमें कितना भी पानी डालो, वो घर पहुंचते-पहुंचते खाली हो जाती है। नोट करें कि किसानों को तीन लाख रुपए तक का फसल ऋण मात्र 4 प्रतिशत सालाना के ब्याज पर मिलता है वो भी आठ साल पहले वित्त वर्ष 2009-10 से। आखिर किसान 4 प्रतिशत सालाना ब्याज भी क्यों नहीं दे पाता जबकि शहरों में सब्जी व ठेले-खोमचे वाले तक हर दिन 2-3 प्रतिशत (सालाना 730 से 1095 प्रतिशत) ब्याज देकर भी धंधा व घर-परिवार चला लेते हैं?
मजे की बात यह है कि एक तरफ किसान कर्ज उतार पाने की स्थिति में नहीं है। दूसरी तरफ कृषि ऋण का बजट लक्ष्य हर साल बढ़ता गया है। वित्त वर्ष 2007-08 कृषि ऋण का लक्ष्य 2.50 लाख करोड़ रुपए, जबकि वास्तव में 2.55 लाख करोड़ रुपए बांटे गए। 2016-17 में कृषि ऋण का लक्ष्य 9 लाख करोड़ रुपए का था, जबकि 7.56 लाख करोड़ रुपए अप्रैल-सितंबर 2016 की पहली छमाही में ही बांटे जा चुके थे। चालू वित्त वर्ष 2017-18 के लिए बजट में कृषि ऋण का लक्ष्य 10 लाख करोड़ रुपए रखा गया है। संदर्भ के लिए बता दें कि इस साल खुद भारत सरकार कुल 5.8 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लेने जा रही है। सवाल उठता है कि जो कृषि घाटे का सौदा बन चुकी है, उसे सरकार इतना कर्जखोर बनाने पर क्यों तुली हुई है। कमाल तो यह है कि इतना भारी-भरकम कर्ज हर साल लक्ष्य से ज्यादा बंटता रहा है। पता किया जाए कि कृषि के नाम पर इतना कर्ज लेता कौन है? ध्यान दें कि अधिकांश फसल ऋण तब बंटते हैं, जब किसानों के खेत में कोई फसल होती ही नहीं।
बात साफ है कि कर्ज देना या माफ करना कृषि समस्या का समाधान नहीं है। दो बातें गौर करने लायक हैं। एक, देश में अधिकांश किसान छोटे काश्तकार हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश के 2.30 करोड़ किसानों में से 1.85 करोड़ (80.4 प्रतिशत) के पास ढाई एकड़ से कम ज़मीन है। इससे ऊपर पांच एकड़ तक के किसानों की संख्या मात्र 30 लाख है। इस तरह बड़े किसानों का हिस्सा मात्र 6.5 प्रतिशत है। खाद सब्सिडी वगैरह इनके काम की हो सकती है, जबकि 93.5 प्रतिशत किसानों को जैविक खेती की तरफ ले जाया जा सकता है। दूसरे, समूचे देश में खेती-किसानी में 26 करोड़ लोग कार्यरत हैं। अमेरिका में यह काम केवल 25 लाख लोग करते हैं। अपने यहां अगर वो स्तर आ जाए तो केवल 88 लाख लोगों की दरकार होगी। यानी, अपने यहां कृषि में लगे 25.12 करोड़ लोग फालतू हैं। इनके रोज़गार का इंतज़ाम कृषि आधारित उद्योगों में किया जाना चाहिए जो उनके घर के पांच-दस किलोमीटर के दायरे में हों। क्या योगी के तेज और मोदी के प्रताप में है ऐसे समाधान का दम?
{यह लेख 9 अप्रैल 2017 को दैनिक जागरण के मुद्दा पेज़ पर छपा है}