इस बार की आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2023-24 में वेतनभोगी व स्वरोजगार में लगे पुरुष व महिला, दोनों ही श्रमिकों का असल मासिक वेतन कोरोना महामारी के दो साल पहले के वित्त वर्ष 2017-18 के स्तर से भी कम रहा है। असल स्थिति सतही या नॉमिनल स्थिति से मुद्रास्फीति का असर मिटाकर निकाली जाती है। आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि 2017-18 में पुरुष श्रमिक का असल औसत मासिक वेतन ₹12,665औरऔर भी

इस समय केंद्र में सत्तारूढ़ दल पर जनधन को लूटने की अंधी हवस सवार है। वो बड़े राज्यों ही नहीं, छोटे राज्यों व केंद्र-शासित क्षेत्रों तक में येन-केन प्रकारेण सरकार बनाने में लगी रहती है। जहां धार्मिक ध्रुवीकरण या धांधली व गुंडागर्दी से चुनकर सत्ता में नहीं आती, वहां विधायकों की खरीद-फरोख्त से सरकार बना लेती है। लेकिन उसका यह राजनीतिक चरित्र देश की अर्थनीति के लिए घातक बनता जा रहा है। देश की अर्थव्यवस्था इस समयऔरऔर भी

इस सरकार के चरित्र के दो खास पहलू हैं जो इसके 11 साल के कार्यकाल में दिन के उजाले की तरह साफ हो चुके हैं। एक, यह कॉरपोरेट क्षेत्र और उसमें भी अपने प्रिय चुनिंदा बड़े समूहों का अहित कभी नहीं करेगी। दो, सरकार अपना मनमाना खर्च चलाते रहने के लिए टैक्स संग्रह को कभी घटने नहीं देगी। हालांकि वो आईएमएफ व विश्व बैंक जैसी वैश्विक संस्थाओं को खुश रखने के लिए ऋण पर अंकुश लगा सकतीऔरऔर भी

सरकारें हमेशा यह छिपाने में लगी रहती हैं कि वे जनता की सेवा का नारा देकर असल में किसके लिए काम कर रही हैं। लोकतंत्र में विपक्ष, मीडिया व जागरूक अवाम का काम है कि वो हमेशा सरकार की असलियत उजागर करता रहे। विपक्ष अवसरवादी और मीडिया सरकार की गोद में जा बैठा हो तो सारा का सारा दायित्व जागरूक अवाम पर आ जाता है। सरकार के असली चेहरे व चरित्र को समझने के लिए बजट सेऔरऔर भी

बचपन में मां एक पहेली पूछा करती थी। गुरु गुरुआइन नब्बे चेला, तीन गो रोटी में कैसे होला? हम लोग नहीं बता पाते तो मां बताती कि असल में चेले का नाम ही नब्बे था। इस बार के बजट में वित्त मंत्री नम्मो ताई ने भी कुछ ऐसी ही पहेली पूछ ली है, जिसका कोई जवाब नहीं सूझ रहा। उन्होंने ऐसा प्रावधान किया है जिससे 12 लाख रुपए तक सालाना आय वालों को कोई इनकम टैक्स नहींऔरऔर भी

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को बजट में रोते रुपए और बिलखती अर्थव्यवस्था से जुड़े बहुत सारे सवालों का जवाब देना होगा। वे बताएं कि 1991 में शुरू आर्थिक उदारीकरण के 34 साल बाद भी निजी क्षेत्र हाथ पर हाथ रखकर क्यों बैठा है और विदेशी निवेश 12 साल के न्यूनतम स्तर पर क्यों आ गया है? देश के विकास का दारोमदार अब भी सरकार के रहमोकरम पर क्यों टिका है? वित्त मंत्री यह भी बताएं कि उनकीऔरऔर भी

सरकार गिरते रुपए की धार को कुंद करने की हरचंद कोशिश कर रही है। कहा जा रहा है कि डॉलर के मुकाबले भले ही रुपया कमज़ोर हो रहा हो, लेकिन उसकी वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (रीयल अफेक्टिव एक्सचेंज रेट या REER) अब तक के सर्वोच्च स्तर पर है। रीर केवल डॉलर नहीं, बल्कि दुनिया के उन 40 देशों की मुद्राओं के सापेक्ष रुपए की विनिमय दरों का भारित औसत है जिनसे हमारा लगभग 88% सालाना आयात-निर्यात होताऔरऔर भी

रिजर्व बैंक ने रुपए को संभालने की पुरज़ोर कोशिश की। डॉलर के मुकाबले रुपया जमकर गिरना शुरू हुआ, उससे पहले सितंबर में उसने विदेशी मुद्रा के फॉरवर्ड बाज़ार में 14.58 अरब डॉलर बेचे थे। वहीं अक्टूबर में उसने फॉरवर्ड बाज़ार में 49.18 अरब डॉलर और स्पॉट बाजार में 9.27 अरब डॉलर बेचे। बता दें कि अप्रैल 2024 में रिजर्व बैंक ने स्पॉट बाज़ार से 13.24 अरब डॉलर खरीदे थे और फॉरवर्ड बाज़ार में मात्र 54 करोड़ डॉलरऔरऔर भी

सेवाओं का निर्यात ठंडा पड़ता गया। वैसे यह भी एक मिथ है कि भारत सेवाओं के निर्यात में तोप-तमंचा है। विश्व बैंक की रैंकिंग में प्रति व्यक्ति सेवा निर्यात में भारत 114 देशों में 89वें नंबर पर है और मलयेशिया, तुर्किए व थाईलैंड जैसे देशों से भी नीचे हैं। खैर, सेवाओं का निर्यात ठंडा पड़ने से देश में डॉलर का आना थम गया, जबकि निकलने की रफ्तार बढ़ गई तो रुपया कमज़ोर होता चला गया। विदेशी पोर्टफोलियोऔरऔर भी

डॉलर के मुकाबले रुपए का गिरना कोई अनोखी बात नहीं। 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान रुपया गिरा था और 2013 में भी खूब गिरा जब अमेरिका के क्रेंदीय बैंक फेडरल रिजर्व ने घोषणा कर दी थी कि वो सरकार के ट्रेजरी बॉन्ड खरीदकर सिस्टम में डॉलर झोंकने का सिलसिला धीमा करने जा रहा है जिसके बाद वहां के सरकारी बॉन्डों के दाम घट और उन पर यील्ड बढ़ गई थी। लेकिन इस बार रुपया केवलऔरऔर भी