आज के दौर में दुनिया में शायद ही कहीं धर्म के आधार पर राजनीति होती है। लेकिन भारत में धर्म के आधार पर राजनीति ही नहीं हो रही, बल्कि धंधा भी हो रहा है। वो भी उस धर्म के नाम पर जो इतिहास में कहीं दर्ज ही नहीं है। उसे कभी हिंदू तो कभी सनातन कहने लगते हैं। भारत में प्रचलित जो धर्म इतना व्यापक है कि उसकी कोई एक किताब नहीं, कोई एक आराध्य देव नहीं,औरऔर भी

विश्व बैंक ने आगाह किया है कि भारत का विदेशी ऋण इस साल 2025 में 100 अरब डॉलर और बढ़ सकता है। यह सितंबर 2024 तक 711.8 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर था। ऊपर से देश का विदेशी मुद्रा भंडार 27 सितंबर 2024 को हासिल 704.89 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर से गिरते-गिरते 14 फरवरी 2025को 635.72 अरब डॉलर पर आ चुका है। अंदर की कमज़ोरी और बाहर के बोझ के दो पाटों के बीच भारतऔरऔर भी

देश की अर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द मोदी सरकार द्वारा दस सालों से बनाया गया तिलिस्म धीर-धीरे टूट रहा है। यह तिलिस्म अचानक चिंदी-चिंदी न बिखर जाए, इसकी हरचंद कोशिश की जा रही है। फिर भी चादर हाथ से सरकती जा रही है। विश्व बैंक ने कुछ महीनों पहले कहा था कि अभी जो रफ्तार है, उससे अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय एक चौथाई हिस्से तक भी पहुंचने में चीन को दस साल से ज्यादा, इंडोनेशिया को लगभग 70औरऔर भी

मोदीराज के दस साल में सरकार का बजट जीडीपी की गति से ज्यादा बढ़ा है। मतलब कि सरकार ने अपने तंत्र और स्कीमों पर जितना खर्च किया, उसका लाभ देश की अर्थव्यवस्था को उतना नहीं मिला। इसमें भी देखना ज़रूरी है कि सरकार ने अपना बजट किस-किस मद में ज्यादा बढ़ाया है। लेकिन पहले यह जान लें कि जिन दस सालों में जीडीपी 10.02% की नॉमिनल दर से बढ़ा, उसी दौरान औसत भारतीय की कमाई 8.90% औरऔरऔर भी

भविष्य में कभी कोई मोदी सरकार के कर्मों का हिसाब करेगा, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथनी और करनी के अंतर का लेखा-जोखा करेगा तो उनकी राजनीतिक दक्षता, कौशल व धूर्तता की दाद देने से बच नहीं सकता कि कैसे इतने झूठ व पाप के बावजूद कोई शख्स जनमत या तंत्र को मैनिपुलेट करके तीसरी बार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सत्ता हासिल कर सकता है। मोदी ने आते ही ‘मिनिमम गवर्मेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ का नाराऔरऔर भी

मोदी सरकार यकीनन राजनीति में येनकेन प्रकारेण सत्ता पर अजगरी गिरफ्त बनाए हुए है। लेकिन अर्थव्यवस्था में वो अंधे धृतराष्ट्र की गति को प्राप्त हो चुकी है। वो अपने मुठ्ठी भर प्रिय कॉरपोरेट समूहों के स्वार्थ में इतनी अंधी हो चुकी है कि बाकी उसे कुछ नहीं दिख रहा। अर्थव्यवस्था के सामने दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं उत्पादन या मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ाना और लोगों की क्रय-शक्ति या खपत के आधार को बढ़ाना। देश में खपत का मौजूदाऔरऔर भी

विदेशी निवेशक जितना बेच रहे हैं, देशी निवेशक उतना ही खरीद रहे हैं, फिर भी हमारा शेयर बाज़ार गिरा जा रहा है। बेचने-खरीदने का हिसाब एकदम बराबर। ज़ीरो-सम गेम। फिर भी निवेशकों को 76 लाख करोड़ रुपए का विशालकाय घाटा! याद रखें कि अर्थव्यवस्था काया है तो शेयर बाज़ार उसकी छाया। लेकिन छाया है परछाईं नहीं, जो सूरज के उठने-गिरने के साथ बदलती रहे। 27 सितंबर 2024 को निफ्टी-50 सूचकांक 24.34 के पी/ई अनुपात पर ट्रेड होऔरऔर भी

कहा जाता है कि जहाज जब डूबने को होता है तो सबसे पहले चूहे निकलकर भागते हैं। यह अलग बात है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट में फंसने का संकेत पाकर हमारे शेयर बाज़ार से निकल भागनेवाले कोई चूहे जैसे पिद्दी नहीं, बल्कि विशाल आकार व प्रभाव वाले विदेशी संस्थागत या पोर्टफोलियो निवेशक (एफआईआई/ एफपीआई) हैं। 27 सितंबर 2024 से 14 फरवरी 2025 तक वे हमारे शेयर बाज़ार के कैश सेगमेंट से ₹2.01 लाख करोड़ निकाल चुकेऔरऔर भी

अपने यहां रोज़गार पर स्थिति बड़ी कारुणिक है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में, “न हो क़मीज़ तो पांवों से पेट ढक लेंगे, कितने मुनासिब हैं ये लोग इस सफ़र के लिए।” यहां बिरले लोग ही बताते हैं कि उनके पास कोई रोज़गार नहीं है। जिससे भी पूछो, वो बताएगा कि वो कोई न कोई काम-धंधा कर रहा है। गांवों में महिलाओं से पूछो तो वे बताती है कि घर के कामकाज में हाथ बंटाती हैं। सरकारी सर्वेक्षणऔरऔर भी

भारत को गरीब मुल्क होने की दुर्दशा से निकालना है तो बड़े पैमाने पर सार्थक रोज़गार पैदा करने होंगे। इस साल की आर्थिक समीक्षा में बड़ी साफगोई से कहा गया है कि भारत को 2030 तक हर साल कृषि से बाहर 78.5 लाख रोज़गार पैदा करने होंगे। सरकार का ताज़ा आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) जुलाई 2023 से जून 2024 तक की अवधि के लिए किया गया था। इसके मुताबिक कृषि में हमारा 46% श्रमबल लगा हुआ है।औरऔर भी