विखंडित जीवन
हमारी मान्यताएं एक तरफ। व्यावहारिक व व्यावसायिक सोच एक तरफ। दोनों अलग-अलग खानों में बंटी हुई। मगर जीवन तो मूलतः एक ही खंड है, समरूप है। ऐसे में होता यह है कि मान्यता और सोच की खींचतान में जीवन ही विखंडित हो जाता है।और भीऔर भी
हमारी मान्यताएं एक तरफ। व्यावहारिक व व्यावसायिक सोच एक तरफ। दोनों अलग-अलग खानों में बंटी हुई। मगर जीवन तो मूलतः एक ही खंड है, समरूप है। ऐसे में होता यह है कि मान्यता और सोच की खींचतान में जीवन ही विखंडित हो जाता है।और भीऔर भी
मान्यता, संस्कार या परंपरा – ये सब जड़त्व व यथास्थिति के पोषक हैं, जबकि शिक्षा से निकली वैज्ञानिक सोच गति का ईंधन है। जड़त्व और गति की तरह शिक्षा और संस्कार में भी निरंतर संघर्ष चलता रहता है जिसमें अंततः गति का जीतना ही जीवन है।और भीऔर भी
आप बुद्धिमान हैं, अच्छी बात है। लेकिन क्या आप बुद्धिमानी से दुनिया को देख रहे हैं? शायद नहीं, क्योंकि इसके लिए काफी अध्ययन, मनन और ज्ञान की जरूरत है। इसलिए बुद्धिमान होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है जीवन को बुद्धिमानी से देखना व जीना।और भीऔर भी
शरीर है। क्रिया-प्रतिक्रिया की लीला ही जीवन है, उसकी चमक है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अंदर चमक देनेवाली कोई वस्तु अलग से बैठी है। सूरज जो इस सृष्टि के जीवन का आधार है, उसमें रौशनी फेंकने वाली कोई आत्मा नहीं विराजती।और भीऔर भी
हमें हर वक्त अपना काम इतना टंच रखना चाहिए और जीवन को इतने मुक्त भाव से जीना चाहिए कि अगले ही पल अगर मौत हो जाए तो कतई मलाल न रहे कि हमने ये नहीं किया या वो नहीं किया। जिम्मेदारी से जीना। मुक्त मन से जाना।और भीऔर भी
चीजें जो कल थीं, आज नहीं हैं। आज जैसी हैं, वैसी कल नहीं रहेंगी। परिवर्तन का यही नियम है। यही जीवन है। इसलिए कल से चिपके रहने या आज को लेकर रोते रहने का कोई मतलब नहीं। सबक लो, बढ़ते चलो। यही सही है और उचित भी।और भीऔर भी
जीवन और मृत्यु की शक्तियां बराबर हमें अपनी ओर खींचती रहती हैं। उम्र के एक पड़ाव के बाद मृत्यु हावी हो जाती है। तभी परख होती है हमारी जिजीविषा की कि मृत्यु के जबड़े से हम कितनी ज़िंदगी खींचकर बाहर निकाल लेते हैं।और भीऔर भी
पत्थर में न तो इच्छा होती है और न द्वेष। उसे न सुख होता है, न दुख। न ही पत्थर अपना रूप बनाए रखना चाहता है, जबकि ये अनुभूतियां ही प्राणियों की पहचान और उनके जीवन का मूल तत्व हैं।और भीऔर भी
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