सुप्रीम कोर्ट ने काफी हद तक सहारा समूह का पक्ष स्वीकार कर लिया है, जबकि उसके खिलाफ लड़ रहे पूंजी बाजार नियामक, सेबी और निवेशकों के समूह की शिकायत है कि अदालत ने उनका पक्ष सुना ही नहीं। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश अलतमस कबीर और जस्टिस एस एस निज्जर व जे चेलामेश्वर की बेंच ने फैसला सुनाया कि सहारा समूह की दो कंपनियों – सहारा इंडिया रीयल एस्टेट कॉरपोरेशन और सहारा हाउसिंग इनवेस्टमेंट कॉरपोरेशन, को निवेशकों से जुटाए गए 24,000 करोड़ रुपए 15 फीसदी ब्याज के साथ फररवरी 2013 के पहले हफ्ते तक लौटा देने होंगे। इसमें से 5120 करोड़ रुपए का डिमांड ड्राफ्ट तत्काल उसे सेबी के पास जमा कराना होगा, जबकि 10,000 करोड़ रुपए उसे अगले महीने जनवरी के पहले हफ्ते तक देने हैं और बाकी रकम फरवरी के पहले हफ्ते तक।
इससे पहले सोमवार को सुनवाई के दौरान सहारा समूह के वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम ने कहा था कि वे अपने साथ 5120 करोड़ रुपए का डिमांड ड्राफ्ट लेकर आए हैं। लेकिन सेबी इसे ले नहीं रहा। उन्होंने 24,000 करोड़ रुपए के रिफंड की रकम पर भी सवाल उठाया था। उनका कहना था कि सेबी न तो दोनों कंपनियों के निवेशकों से संबंधित दस्तावेज स्वीकार कर रहा है और न ही निवेशकों को रिफंड की जानेवाली रकम। कुछ दिन पहले ही सहारा ने तमाम अखबारों में बीच के दो पन्नों का विज्ञापन देकर दावा किया था कि वह उक्त दो कंपनियों के जरिए 2008-09 में ओएफसीडी (ऑप्शनी फुली कनवर्टिबल डिबेंचर) से जुटाई गई रकम में से 33,000 करोड़ रुपए निवेशकों को लौटा चुका है। अब ओएफसीडी की केवल 5120 करोड़ रुपए की देनदारी बाकी बची है।
सेबी के वकील अरविंद दत्तार को यह दावा काफी नागवार गुजरा। उनका कहना है कि इन कंपनियों ने 2.73 करोड़ निवेशकों से लगभग 27,000 करोड़ रुपए जुटाए थे। समूह इसमें से करीब 22,000 करोड़ रुपए 63 शहरों में रीयल एस्टेट प्रकल्पों में निवेश करने की बहानेबाज़ी कर रहा है। असल में इसी साल 31 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस के एस राधाकृष्णन और जे एस केहर की दूसरी बेंच ने फैसला सुनाया था कि सहारा समूह की दो कंपनियों को सेबी के जरिए 24,000 करोड़ रुपए निवेशकों को 30 नवंबर तक लौटा देने होंगे। इससे पहले दस दिन के भीतर (10 सितंबर) तक ओएफसीडी के लगभग तीन करोड़ निवेशकों से संबंधित दस्तावेज सेबी के मुंबई मुख्यालय में जमा करा देने होंगे। सहारा ने तय वक्त में ये दस्तावेज सेबी तक नहीं पहुंचाए।
खबरों के मुताबिक 10 सितंबर को रात दस बजे के आसपास सहारा ने दो ट्रक दस्तावेज सेबी के मुख्यालय तक पहुंचा दिए गए थे। लेकिन सेबी ने ऑफिस बंद हो जाने की वजह से इन्हें स्वीकार नहीं किया। इसके बाद सेबी ने 19 अक्टूबर को अदालत की अवमानना का मामला सुप्रीम कोर्ट में दर्ज करा दिया, जिस पर अभी सुनवाई होनी बाकी है। इसी बीच सहारा ने सैट (सिक्यूरिटीज अपीलीय ट्राइब्यूनल) से भी सेबी के आदेश के खिलाफ गुहार लगाई। लेकिन उसने 29 नवंबर को सेबी के पक्ष में ही फैसला सुनाया।
इन अदालती पैतरों के दौरान ही सेबी ने सहारा की कंपनियों के खातों वाली 86 बैंक शाखाओं और दो संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र भेजकर इन कंपनियों की चल-अचल संपत्तियों की जानकारी मांग ली थी। इसी से घबराकर सहारा ने सुप्रीम कोर्ट ने नया मामला दर्ज करा दिया। सहारा के वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम का यह भी कहना है कि ओएफसीडी की विवादित रकम 17,400 करोड़ रुपए की है। इस पर मुख्य न्यायाधीश अलतमस कबीर की अध्यक्षता वाली बेंच ने झड़प लगाते हुए कहा, “आप रकम क्यों बदल रहे हैं?” बेंच ने स्पष्ट किया कि 31 अगस्त के फैसले में तय रकम को बदलने का सवाल ही नहीं उठता।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से न तो सेबी और न ही निवेशकों के प्रतिनिधि खुश हैं। सेबी के वकील अरविंद दत्तार का कहना है कि जस्टिस कबीर की बेंच द्वारा दूसरी बेंच द्वारा 31 अगस्त को सुनाए गए फैसले को बदलना सही नहीं है। अगर 30 नवंबर रिफंड की अंतिम तारीख थी तो उसे क्यों बदल दिया गया? सहारा की याचिका पर जस्टिस राधाकृष्णन और जे एस केहर की पिछली बेंच को ही सुनवाई करनी चाहिए थी। दत्तार ने बुधवार को अदालत से फरियाद की कि मुख्य न्यायाधीश को उनका यह बयान रिकॉर्ड करना होगा कि इस मामले को सुनवाई जस्टिस राधाकृष्णन और केहर की बेंच को ही करना चाहिए। इस पर मुख्य न्यायाधीश कबीर नाराज हो गए। उनका कहना था, “हमें जो सही लगेगा, उसे रिकॉर्ड करेंगे। हम आपके कहने पर कोई बात रिकॉर्ड नहीं कर सकते।”
सहारा की कंपनियों के निवेशकों के एक संघ की भी शिकायत है कि अदालत ने उनके तर्कों को सुने बगैर फैसला सुनाया है। इनकी तरफ से पैरवी करनेवाले वरिष्ठ वकील विकास सिंह ने कहा, “आप कह रहे हैं कि यह फैसला निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए सुनाया जा रहा है। लेकिन जब निवेशकों की बात ही नहीं सुनी गई तो इसका क्या मतलब है। यह उचित नहीं है।” बेंच से उन्होंने फरियाद की थी कि निवेशकों की याचिका को सहारा की याचिका के साथ न निपटाया जाए। लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने इस पर बेहद नाराज होते हुए कहा – नो, सॉरी।
कुल मिलाकर मामला यह है कि सहारा का तिलिस्म अब भी कायम है। 1978 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर से महज 2000 रुपए से शुरुआत करनेवाला सहारा समूह अब तक निवेशकों से 2,25,000 करोड़ रुपए जुटा चुका है। इनमें से अपने 14.70 करोड़ खाताधारकों को वह 1,70,636 करोड़ रुपए लौटा चुका है। इस तरह उस पर अभी कुल मिलाकर 54,364 करोड़ रुपए की देनदारी बचती है। समूह के पास जो आस्तियां हैं, उनकी संभावित कमाई 3,17,853 करोड़ रुपए की है, जिनका शुद्ध वर्तमान मूल्य (एनपीवी) 1,52,518 करोड़ रुपए है। समूह का कहना है कि उसे वित्तीय बाजार के नियामकों – रिजर्व बैंक और सेबी की तरफ से बेवजह परेशान किया जा रहा है। वह तो असल में आम लोगों को वित्तीय सेवाओं के दायरे में लाकर वित्तीय समावेश का काम कर रहा है और भारत मां उसकी रक्षा करेंगी।
बता दें कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश के कुल 58.7 फीसदी घरों तक ही बैंकिंग सेवाएं पहुंच सकी हैं। ऐसे में अगर अकेले सहारा समूह करीब 15 करोड़ खातों की बात करता है तो उसके दावे की पड़ताल हमारे देश के नियामकों को जरूर करनी चाहिए। नहीं तो मान लिया जाएगा कि सहारा समूह के तिलिस्म में हमारे देश के हुक्मरान समेत सारा राजनीतिक तंत्र शामिल है। जिस समूह के मुखिया के बेटों की शादी में बाल ठाकरे जैसे शख्यियत मुंबई से सीधे लखनऊ पहुंच जाती रही हो, उसकी ताकत का सहज अंदाजा आप लगा सकते हैं।