रिजर्व बैंक ने दिसंबर की मौद्रिक नीति समीक्षा में अनुमान लगाया है कि चालू वित्त वर्ष 2020-21 में हमारी अर्थव्यवस्था में 7.5% ही गिरावट आएगी, जबकि उसका पिछला अनुमान 9.5% की गिरावट का था। अगर ऐसा होता है कि इसका श्रेय भारतीय अवाम और उद्योग क्षेत्र को जाएगा, सरकार को नहीं। कारण, अब तक सरकार के सारे घोषित पैकेज ज़मीनी धरातल पर नाकाम और महज दिखावा साबित हुए हैं। जहां सरकार को जीडीपी बढ़ाने के लिए अपना खर्च बढ़ाना चाहिए था, वहीं साल की दूसरी तिमाही में उसने अपना खर्च पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 22% से ज्यादा घटा दिया है।
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 12 नवंबर को कोरोना से असर से निपटने का तीसरा पैकेज घोषित करते हुए कहा था, “अगर आप अब तक घोषित सभी पैकेज और रिजर्व बैंक के घोषित उपायों को जोड़ दें तो आर्थिक प्रोत्साहन के रूप में 29,87,641 करोड़ रुपए दिए जा चुके हैं। यह जीडीपी का 15% बनता है। अकेले केंद्र सरकार ने जो प्रोत्साहन दिए हैं, वे जीडीपी का 9% ठहरते हैं।” उनका यह जवाब उन सुझावों के बारे में था जिनमें विशेषज्ञों की तरफ से बार-बार कहा जा रहा था कि सरकार को कोरोना संकट से निपटने के लिए डीजीपी का कम से कम 10 प्रतिशत खर्च करना चाहिए। तभी हमारी अर्थव्यवस्था पटरी पर आ सकती है।
लेकिन वित्त मंत्री का दावा और जवाब कितना खोखला है, इसके दो ठोस सबूत हैं। पहला तो यह कि 12 नवंबर को घोषित पैकेज का लगभग 40% हिस्सा उर्वरक कंपनियों को देय सब्सिडी का बकाया चुकाने के लिए था। असल में उस दिन घोषित 1.19 लाख करोड़ रुपए के पेकेज में से 65,000 करोड़ रुपए उर्वरक सब्सिडी के लिए थे। वित्त मंत्री ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया था कि यह सब्सिडी इसलिए बढ़ाई गई है ताकि ज्यादा हो रही बोवाई की स्थिति में किसानों को उर्वरकों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। लेकिन हकीकत में इसमें से 48,000 करोड़ रुपए उर्वरक कंपनियों के लंबे समय से अटके भुगतान को क्लियर करने के लिए दिए गए। बता दें कि इस साल वित्त वर्ष 2020-21 के बजट में उर्वरक सब्सिडी के लिए कुल 71,309 करोड़ रुपए का प्रावधान था। अब 65,000 करोड़ रुपए में से 48000 करोड़ रुपए पुराना बकाया अदा करने के बाद इस साल की कुल उर्वरक सब्सिडी अब लगभग 88,309 करोड़ रुपए हो गई है।
सरकार के प्रोत्साहन पैकेज के खोखला होने का दूसरा सबसे बड़ा सबूत है सितंबर 2020 की तिमाही के जीडीपी के आंकड़े। अगर हम राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) द्वारा 27 नवंबर को घोषित आंकड़ों पर नज़र डालें तो दिन के उजाले की तरह साफ हो जाता है कि जब अर्थव्यवस्था को गति देने का, उसमें जान डालने का सारा दारोमदार सरकार के ऊपर था, जब उसे ज्यादा से ज्यादा खर्च करना था, तब उसने पिछले वित्त वर्ष से भी 22 प्रतिशत कम खर्च किया है। पिछले वित्त वर्ष 2019-20 की सितंबर तिमाही में सरकार का अंतिम खपत खर्च (जीएफसीई) 4,65,643 करोड़ रुपए था, जबकि चालू वित्त वर्ष 2020-21 की सितंबर तिमाही में यह खर्च 3,62,368 करोड़ रुपए रहा है। पूरे 1,03,275 करोड़ रुपए यानी 22.18 प्रतिशत कम। हालांकि, चालू वित्त वर्ष 2020-21 की पहली दोनों तिमाहियां जोड़ दें तो इस बार सितंबर तक की छमाही में कुल सरकारी खर्च 8,49,004 करोड़ रुपए रहा है, जबकि पिछले साल सितंबर तक की छमाही में यह खर्च 8,83,892 करोड रुपए रहा था। यानी, इस बार पिछले साल के मुकाबले 34,888 करोड़ रुपए या 3.9 प्रतिशत कम।
असल में सीएसओ राष्ट्रीय आय के दो विवरण देता है। एक तो जीवीए या सकल मूल्य वर्धन का और दूसरा जीडीपी या सकल घरेलू उत्पाद। मोटे तौर पर जान लें कि जीवीए में अगर सब्सिडी को घटाकर सरकार को मिले शुद्ध टैक्स की मात्रा जोड़ दी जाए तो वह जीडीपी बन जाता है। मसलन, सितंबर 2020 की तिमाही में मुद्रास्फीति के असर को हटा देने के बाद 2011-12 के स्थिर मूल्यों पर हमारा जीवीए 30,48,589 करोड़ रुपए है, जबकि जीडीपी 33,14167 करोड़ रुपए है। इससे समझा जा सकता है कि सितंबर 2020 की तिमाही में सरकार को शुद्ध रूप से 2,65,578 करोड़ रुपए का टैक्स मिला है।
हम दोनों ही विवरणों में देखेंगे कि कहां-कहां और कैसा लोचा है। पहले विवरण में जीवीए को आठ क्षेत्रों के बांटकर डेटा दिया जाता है। ये आठ क्षेत्र हैं: 1. कृषि, वानिकी व मत्स्य क्षेत्र, 2. खनन व खदान, 3. मैन्यूफैक्चरिंग, 4. बिजली, गैस, जल आपूर्ति व अन्य उपयोगी सुविधाएं, 5. कंस्ट्रक्शन, 6. व्यापार, होटल, ट्रांसपोर्ट, संचार व ब्रॉडकास्टिंग संबंधी सेवाएं, 7. वित्तीय, रीयल एस्टेट व प्रोफेशनल सेवाएं, और 8. सरकारी प्रशासन, डिफेंस व अन्य सेवाएं। इनमें से कृषि, वानिकी व मत्स्य क्षेत्र ने पहली तिमाही की तरह इस बार भी 3.4% की विकास दर के साथ अर्थव्यवस्था को ज्यादा डूबने से बचा लिया है। लेकिन मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का 0.6% बढ़ जाना सबको चौकाता है। कारण, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के हिस्से के रूप में गिनने पर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का उत्पादन सितंबर तिमाही में 6.8 प्रतिशत घटा है। फिर वह जीवीए में कैसे 0.6% बढ़ गया, जबकि जून तिमाही में यह 39.3% घटा था? एक वजह तो यह है कि पिछले साल 2019-20 की सितंबर तिमाही में यह 0.6% घटा था तो कम आधार से तुलना में थोड़ा बढ़ गया।
दूसरे, समझने की बात है कि किसी क्षेत्र के जीवीए की गणना उसके कुल उत्पादन में से कच्चे माल से लेकर कर्मचारी लागत जैसे सारे खर्च घटाकर की जाती है। उत्पादन घटने के बावजूद मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का जीवीए बढ़ जाने की वजह यह है कि कंपनियों ने इस दौरान कर्मचारी लागत घटा दी है। एसबीआई के मुख्य अर्थशास्त्री सौम्य कांति घोष ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि 500 करोड़ रुपए तक के टर्नओवर वाली छोटी कंपनियों ने कर्मचारी लागत 10-12% घटा ली है। इनके जो कर्मचारी कोरोना के चलते बाहर छिटके, उन्हें वापस काम पर नहीं लिया गया। मतलब, उन्होंने ज्यादा माल बेचकर नहीं, बल्कि कर्मचारी घटाकर अपनी आमदनी बढ़ाई है। यह अर्थव्यवस्था की भावी गति के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि वह पहले से ही मांग की कमी से जूझ रही है और कंपनियों की इस हरकत से मांग और भी ज्यादा कम हो जाएगी।
दरअसल, सितंबर तिमाही के आंकड़े साफ दिखाते है कि मांग के चारों प्रमुख स्रोत ठंडे पड़े हैं। पहला है पीएफसीई (प्राइवेट फाइनल कंजम्पशन एक्सपेंडीचर)। जीडीपी में सबसे ज्यादा योगदान इसी का रहता है। इसमें हमारे-आप जैसे लोग जो खर्च करते हैं, वह आता है और जीडीपी में सबसे बड़ा योगदान इसी का रहता है। सितंबर 2020 की तिमाही में यह खर्च 17,96,290 करोड़ रुपए (जीडीपी का 54.2%) रहा है जो सितंबर 2019 की तिमाही के खर्च 20,25,488 करोड़ रुपए (जीडीपी का 56.5%) से 11.32% कम है। मांग का दूसरा स्रोत है ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन (जीएफसीएफ)। इसमें बड़े व छोटे दोनों ही तरह के बिजनेस, कंपनियों या फर्मों द्वारा अर्थव्यवस्था में किए गए निवेश से उपजी मांग आती है। जीडीपी में दूसरा सबसे बड़ा योगदान इस स्रोत का होता है। सितंबर 2020 की तिमाही में यह खर्च 9,59,628 करोड़ रुपए (जीडीपी का 29%) रहा है जो सितंबर 2019 की तिमाही के खर्च 10,35,736 करोड़ रुपए (जीडीपी का 28.9%) से 7.35% कम है।
तीसरा अहम स्रोत है आयात-निर्यात। सितंबर 2020 की तिमाही में आयात (जीडीपी का 19.5%) और निर्यात (जीडीपी का 20.9%), दोनों में कमी आई है। लेकिन साल भर पहले की समान अवधि की तुलना में निर्यात जहां 1.52% घटा है, वहीं आयात में 17.16% की बड़ी कमी दर्ज की गई है। आयात की मांग का इस तरह घटना भारत जैसे बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए कतई शुभ नहीं है। जीडीपी का चौथा प्रमुख स्रोत है सरकार का अंतिम खपत खर्च या जीएफसीई। इसने इस बार अर्थव्यवस्था का सबसे ज्यादा बंटाधार किया है। जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं कि सितंबर 2019 की तिमाही की बनिस्बत सितंबर 2020 की तिमाही में सरकारी खर्च 22.18% कम रहा है।
साफ है कि सरकार अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने के लिए पर्याप्त खर्च नहीं कर रही। इसी का परिणाम है कि इस बार देश का जीडीपी (33,14,167 करोड़ रुपए) दो साल पहले के जीडीपी (34,32,553 करोड़ रुपए) से भी कम रहा है। इतना भी तब, जब जुलाई-सितंबर 2020 की तिमाही में मांग/खर्च में विसंगतियों (discrepancies) की रकम साल भर पहले की तुलना में 3.78 गुना हो गई है। सितंबर 2019 की तिमाही में विसंगतियों की रकम 15,062 करोड़ रुपए थी जो जीडीपी की मात्र 0.4% प्रतिशत थी, जबकि सितंबर 2020 की तिमाही में विसंगतियों की रकम 56,962 करोड़ रुपए हो गई है जो जीडीपी की 1.7% बनती है। विसंगतियों को आम बोलचाल की भाषा में घपला भी कहा जा सकता है। इस तरह दूसरी तिमाही के जीडीपी में 1.7% का घपला है जिसे छोटा तो नहीं ही माना जा सकता।