तंत्र के भीतर तंत्र। सत्ता के समानांतर सत्ता। भारतीय समाज व अर्थतंत्र में ऊपर-ऊपर दिख रही धाराओं के नीचे न जाने कितनी धाराएं बह रही हैं। ये विलुप्त सरस्वती भी हो सकती हैं और घातक कर्मनाशा भी। सहारा समूह ऐसी ही एक अनौपचारिक धारा का नाम है। धंधा तो है लोगों से पैसे जुटाना। लेकिन तरीका आम बैंकिंग से एकदम अलग। धंधे पर कई-कई परतों के परदे। तरह-तरह की बातें। कुछ भी पारदर्शी नहीं। पारदर्शिता के नाम पर जो दिखाया जाता है, वह महज खानापूरी है, जुगाड़ है, बिकाऊ सरकारी अमले के साथ की गई जुगलबंदी है।
बड़ा राजनीतिक और भावनात्मक रसूख है सहारा इंडिया परिवार। उसका दावा रहा है कि 1978 में काम शुरू करने के बाद अपने 34 सालों के वजूद में उसने 14.70 करोड़ निवेशक जोड़े हैं और एक भी निवेशक का धन लौटाने में देरी नहीं की है। उसकी किसी भी स्कीम में बेनामी धन नहीं लगा है और यह बात वो देश की किसी भी सरकारी संस्था के आगे साबित कर सकता है। उसने देश में रेलवे के बाद सबसे ज्यादा 10.13 लाख लोगों को सीधे रोज़गार दे रखा है। समूह अपने लाभ का 25 फीसदी हिस्सा सामाजिक कामों पर और 40 फीसदी कर्मचारियों पर खर्च करता है। बाकी 35 फीसदी भाग भी कंपनियों के कामकाज को बढ़ाने पर लगा दिया जाता है।
लेकिन अपनी दो कंपनियों – सहारा इंडिया रीयल एस्टेट और सहारा हाउसिंग इनवेस्टमेंट कॉरपोरेशन के नाम पर ओएफसीडी (ऑप्शनी फुली कनवर्टिंबल डिबेंचर) के जरिए 25,781.32 करोड़ रुपए जुटाने के मामले में सहारा समूह के सारे दावे हवा में बिखरते नज़र आ रहे हैं। सहारा पहले तो कहता रहा कि 50 से कम निवेशकों से उसने यह सारा धन जुटाया है। लेकिन कोर्ट में चली कार्यवाही के बाद उसने खुद स्वीकार किया कि इन दोनों कंपनियों के ओएफसीडी में लगभग तीन करोड़ निवेशकों से धन लगाया है। यहीं पर वो फंस गया और पूंजी बाज़ार नियामक, सेबी से पंगा लेना अब उसे महंगा पड़ रहा है।
मसला सुप्रीम कोर्ट और मीडिया से होता हुआ सबसे सामने चुका है। इसलिए उसे सहारा या किसी के लिए भी ले-देकर रफादफा करना मुमकिन नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कई दौर के फैसलों के बाद सहारा को दिसंबर में आदेश दिया कि वो सेबी के पास मय-ब्याज ओएफसीडी के सारे निवेशकों का धन जमा करवा दे। 5120 करोड़ रुपए शुरुआत में। 10,000 करोड़ रुपए जनवरी के पहले हफ्ते और बाकी रकम फरवरी के पहले हफ्ते तक। सहारा ने अंतिम तिथि बढ़ाने के लिए फिर सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई। लेकिन कोर्ट ने 25 फरवरी को साफ कहा कि सहारा इससे बच नहीं सकता। उसने सेबी को भी सख्ती बरतने को कहा। इसके बाद बेचैन सहारा समूह सिक्यूरिटीज अपीलीय ट्राइब्यूनल में चला गया, जहां मामले की अगली सुनवाई शनिवार, 23 मार्च 2013 को होनी है।
मामला फिलहाल बड़े दिलचस्प मोड़ पर है। सहारा समूह ने हाल ही में विज्ञापन छपवाकर दावा किया था कि वह ओएफसीडी से जुटाए गए 25,781.32 करोड़ रुपए में से 22,117.39 करोड़ रुपए निवेशकों को लौटा चुका है और अब केवल 3663.93 करोड़ रुपए लौटाने हैं, जबकि सेबी के पास वो पहले ही 5120 करोड़ रुपए जमा करवा चुका है। वहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत सेबी पूरा धन जमा करवाने का दबाव बनाए हुए है, नहीं तो उस पर कोर्ट की अवमानना का आरोप बन जाएगा।
यह भी बड़ी चौंकानेवाली बात है कि सेबी ने सहारा की तरफ से उपलब्ध कराए गए निवेशकों के पतों में से 20,000 लोगों के पास धन वापस लेने के लिए चिट्ठी भेजी तो उनमें से भारतीय डाक विभाग ने 8000 खत यह कहकर लौटा दिया कि इस तरह का कोई पता ही नहीं है। सेबी की साइट पर सहारा के निवेशकों के नाम पर जिन 500 लोगों से संपर्क किया, उनमें से 400 के पते फर्जी पाए गए। इंडियन एक्सप्रेस की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक सहारा ने ट्रकों में भरकर जिन लाखों निवेशकों के कागकाज़ सेबी के पास भेजे थे, उनमें से अभी तक केवल 68 निवेशक ही सही पाए गए हैं। बाकी किसी का कोई अता-पता नहीं है। सहारा की सफाई है कि दस्तावेज देना उसका काम था। बाकी का काम सेबी को करना है।
इस बीच सेबी ने सहारा समूह की दोनों संबंधित कंपनियों और सहारा प्रमुख सुब्रतो रॉय की आस्तियों को जब्त करने की कार्यवाही शुरू कर दी है। हालांकि अभी तक उसे कुल मिलाकर 230 करोड़ रुपए का ही पता लग सका है। लेकिन लगता यही है कि अब समझौते या चिल्लपों मचाने का कोई फायदा नहीं होगा। सहारा के लिए सेबी से पंगा लेना अंततः काफी महंगा पड़ेगा। पहले तो वह रिजर्व बैंक के चंगुल से समझौता करके निकल गया था। लेकिन इस बार मामला इतना उलझ चुका है कि निकलने की कोई राह नहीं बची। सहारा के सामने समर्पण के अलावा कोई चारा नहीं है।