बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) को डेरिवेटिव सौदों में फिजिकल सेटलमेंट अपनाए हुए दो महीने से ज्यादा बीत चुके हैं। 1 फरवरी 2011 को एक्सचेंज ने घोषित किया था कि अब से 13 अप्रैल को या उसके बाद एक्सपायर होनेवाले सभी मौजूदा सिंगल स्टॉक फ्यूचर्स व ऑप्शंस कांट्रैक्ट डिलीवरी आधारित होंगे। नोट करने की बात यह है कि एक तो यह जुलाई 2010 में पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी द्वारा घोषित की गई व्यवस्था थी। इसलिए इसे देर-सबेर लागू करना ही था। दूसरे, बीएसई को कहीं न कहीं से लगा कि इससे उसके डेरिवेटिव सेगमेंट में कुछ जान आ जाएगी।
लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। इस हफ्ते की बात करें तो 11 अप्रैल को वहां सेंसेक्स आधारित फ्यूचर्स व ऑप्शंस (एफ एंड ओ) में कुल कारोबार 52.14 लाख रुपए का था। स्टॉक्स के डेरिवेटिव सौदों में तो हमेशा की तरह निल बटे सन्नाटा ही रहा। दूसरी तरफ 11 अप्रैल को एनएसई में एफ एंड ओ में कुल 79,381.77 करोड़ रुपए का कारोबार हुआ। मार्च की बात करें तो पूरे महीने में बीएसई के डेरिवेटिव सेगमेंट में 25.35 करोड़ रुपए का कारोबार हुआ, जबकि एनएसई में यह 28.78 लाख करोड़ रुपए का रहा। यानी एक लाख पर एक का भी अनुपात नहीं निकलता है।
फिजिकल सेटलमेंट या डिलीवरी आधारित सिंगल स्टॉक फ्यूचर्स व ऑप्शन सौदों के बड़े फायदे हैं। खासकर ट्रेडर इससे अपना जोखिम कर सकते हैं। इससे सट्टेबाजी घटेगी, एसएलबी (स्टॉक लेंडिंग एंड बॉरोइंग) के काम में जान आएगी, कैश सेगमेंट के जोखिम की हेजिंग डेरिवेटिव सौदों से की जा सकेगी। फिर भी अगर यह उठ नहीं पा रहा है तो इसकी क्या वजह हैं? एक तो यही है कि जब स्वीमिंग पूल में पानी ही नहीं है तो उसमें तैरेगा कौन? दूसरे, बीएसई ने इन सौदों में मार्केट मेकिंग प्रणाली शुरू करने के लिए सेबी से इजाजत मांगी थी जो उसे संभवतः अभी तक नहीं मिली है। तीसरे, जिन लोगों की सट्टेबाजी को इससे नुकसान होने की आशंका है, वे ऐसा नहीं होने दे रहे होंगे।
लेकिन ट्रेडरों के फायदे के लिहाज से इसमें टैक्स का पहलू भी गौर करने लायक है। अभी कैश सेगमेंट में सौदे के मूल्य पर 0.125 फीसदी सिक्यूरिटी ट्रांजैक्शन टैक्स (एसटीटी) लगता है। अगर खरीद-बिक्री दोनों सौदों को शामिल कर दें तो यह टैक्स 0.25 फीसदी हो जाता है। जबकि फ्यूयर सौदों में केवल 0.017 फीसदी एसटीटी लगता है वह भी सिर्फ बेचने के सौदों पर।
साफ-सी बात है कि लंबे समय के निवेशकों के लिए एसटीटी में इत्ते-से अंतर से कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन छोटी अवधि के सौदों के लिए यह बचत काफी मायने रखती है। हालांकि छोटी अवधि का ट्रेडर तो एनएसई के डेरिवेटिव सेगमेंट कैश में सौदे सेटल कर मौज उठा सकता है। लेकिन जो ट्रेडर कैश सेगमेंट मे डिलीवरी आघारित सौदे करते हैं, वे यही सौदे अगर सिंगल स्टॉक डेरिवेटिव्स में फिजिकल सेटलमेंट के जरिए पूरा करने लगें तो उनका एसटीटी 0.233 फीसदी बच जाएगा। जहां 5 पैसे, 10 पैसे पर मार होती हो, वहां इतने टैक्स की बचत आकर्षक विकल्प है। हालांकि बाद में डेरिवेटिव व कैश सेगमेंट के एसटीटी का यह अंतर खत्म हो सकता है। लेकिन जब तक है, तब तक तो इसका फायदा उठाया जा सकता है।
साथ ही, जब तक बीएसई के डेरिवेटिव सेगमेंट में वोल्यूम नहीं बढ़ता, तब तक सिंगल-स्टॉक डेरिवेटिव्स का इस्तेमाल ब्लॉक ट्रेडिंग के माध्यम के रूप में किया जा सकता है। अभी ब्लॉक ट्रेडिंग की सुविधा दिन में केवल आधे घंटे के लिए मिलती है। उसमें भी नियम रहता है कि भाव पिछले बंद भाव से एक फीसदी से ज्यादा ऊपर-नीचे नहीं हो सकते। इसलिए संस्थागत या बड़े निवेशक फिजिकल सेटलमेंट की सुविधा का इस्तेमाल बड़े सौदों के लिए कर सकते हैं। एक तो यह सुविधा बाजार के पूरे वक्त उपलब्ध रहेगी, दूसरे इसमें भाव के एक फीसदी अंतर की बंदिश का लफड़ा भी नहीं होगा। हां, इसमें डिलीवरी एक्सपायरी की तारीख पर मिलेगी, जबकि कैश सेगमेंट में मामला टी+2 का रहता है यानी डिलीवरी सौदे के बाद दो दिन में मिल जाती है।
वैसे, ब्रोकिंग फर्म असित सी. मेहता की प्रबंध निदेशक दीना मेहता बीएसई की इस पहल से बहुत उत्साहित नहीं हैं। उनका कहना है कि फिजिकल सेटलमेंट में बाजार के दो तरह के लोगों की दिलचस्पी होगी। एक तो बड़े ट्रेडर जो भारी मात्रा में शेयर बेचना चाहते हैं। लेकिन उन्हें बड़े वोल्यूम व खरीद-फरोख्त की अच्छी सहूलियत या लिक्विडिटी की दरकार है। मुश्किल यह है कि वोल्यूम एनएसई में है तो वहां फिजिकल सेटलमेंट नहीं है। दूसरी तरफ बीएसई में फिजिकल सेटलमेंट है तो वहां वोल्यूम नहीं है। इसलिए इनके लिए मामला अधर में लटका है।
इसके अलावा रिटेल निवेशकों का वो तबका भी फिजिकल सेटलमेंट में दिलचस्पी ले सकता है जो शेयरों की फिजिकल डिलीवरी चाहता है। लेकिन ऐसा तब तक नहीं होगा जब तक स्टॉक लेंडिंग व बॉरोइंग (एसएलबी) प्रणाली में सक्रियता नहीं आती। एसएलबी में सुविधा यह होती है कि जो ट्रेडर या निवेशक शॉर्ट हैं वे फिलहाल यहां से उधार लेकर शेयरों की डिलीवरी कर सकते हैं। बाद में भाव जब उनके माफिक हों तो बाजार से खरीदकर उधार देनेवाले को लौटा सकते हैं। दीना मेहता का मानना है कि डेरिवेटिव सौदों के फिजिकल सेटलमेंट में जान आए, इससे पहले खुद ब्रोकरों को काफी पढ़ना-समझना पड़ेगा। तभी वे निवेशकों को इनका नफा-नुकसान बता सकते हैं।