इंसान से लेकर हाथी, घोड़ा, गाय-बैल, सांप, छिपकली, मेढक, मगरमच्छ व चिड़ियों तक धरती पर जितने भी 69,963 किस्म के रीढ़वाले या कशेरुकी (vertebrates) जीव-जन्तु हैं, उन्होंने देखने की क्षमता वाली अपनी आंखें एक बैक्टीरिया के जीन से हासिल की है। यह सच अप्रैल 2023 में पीएनएएस (प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज) की वेबसाइट पर प्रकाशित एक शोधपत्र में उजागर किया गया है। दरअसल, हमारी आंखों की संरचना इतनी जटिल है कि विकासवाद का मूल सिद्धांत पेश करनेवाले चार्ल्स डार्विन तक यह नहीं समझ व समझा सके कि इनका विकास कैसे हुआ होगा। लेकिन अब यह साफ हो गया कि धरती पर मौजूद सभी वर्टिब्रेट्स में आंखों का विकास एक बैक्टीरिया की देन है। इस बैक्टीरिया ने इनके शरीर में ऐसा खास जीन पहुंचा दिया, जिसने प्रकाश के प्रति रैटिना को संवेदनशील बना दिया। सिडनी यूनिवर्सिटी में रेटिना पर काम कर रहे वैज्ञानिक लिंग झू इस खोज से इतने चौंक गए कि इसे ‘अविश्सनीय’ बताते हैं।
इस अध्ययन में शामिल चार शोधार्थी व वैज्ञानिक हैं – चिन्मय कल्लुराया, अलेक्जैंडर वाइज़ेल, ब्रायन त्सु और मैथ्यू डॉटरटी। इनके शोधपत्र के शुरू मे कहा गया है, “चार्ल्स डार्विन के समय से ही आंख के क्रमिक विकास की व्याख्या करना चुनौती रहा है। हम यहां वर्टिब्रेट की आंख के विकास में बैक्टीरिया के आवश्यक योगदान का वर्णन कर रहे हैं। यह काम बैक्टीरिया के जीन के इंटरडोमेन क्षैतिज जीन ट्रांसफर (आईएचजीटी) के ज़रिए हुआ। इस जीन ट्रांसफर से वर्टिब्रेट को अपने माफिक इंटर-फोटोरिसेप्टर रेटिनॉइड-बाइंडिंग प्रोटीन (आईआरबीपी) मिल गया। आईआरबीपी बेहद संरक्षित व आवश्यक रेटिनॉयड शटलिंग प्रोटीन है। हमने दिखाया है कि 50 करोड़ साल से ज्यादा पहले इसे कैसे बैक्टीरिया के एक जीन से हासिल व डुप्लीकेट किया गया और यह वर्टिब्रेट आंख के विकास का हिस्सा बन गया। अहम बात यह है कि हमारा अध्ययन एक राह पेश करता है जिससे वर्टिब्रेट आंख जैसी जटिल संरचनाएं विकसित होती हैं और इस प्रक्रिया में मौजूदा जेनेटिक सामग्री को ही इधर-उधर नहीं करतीं, बल्कि बाहरी जीन्स को हासिल कर उनके साथ पूरी तरह एकीकृत भी हो जाती हैं।”
मालूम हो कि बैक्टीरिया आसानी से जीन की अदला-बदली करने के लिए जाने जाते हैं। वे ट्रांसपोज़न कहे जानेवाले डीएनए के चलायमान टुकड़ों या वायरस या यहां तक कि फ्री-फ्लोटिंग डीएनए के रूप में भी ऐसा करते हैं। लेकिन वर्टिब्रेट भी बैक्टीरिया या माइक्रोबियल जीन को खुद में समाहित कर सकते हैं। जब साल 2001 में मानव जीनोम को पहली बार सीक्वेंस या क्रमबद्ध किया गया तो वैज्ञानिकों ने सोचा था कि इसमें लगभग 200 बैक्टीरिया से निकले जीन शामिल हैं। हालांकि बहुत सारे जीन्स की माइक्रोबियल उत्पत्ति साबित नहीं की जा सकी।
इन प्रयासों को आगे बढ़ाने की आशा के साथ इस शोध में शामिल कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय सैन डियागो के बायोकेमिस्ट मैथ्यू डॉटरटी ने अपने साथियों के साथ सैकड़ों अन्य प्रजातियों की समान सीक्वेंस को सर्च किया और सैकड़ों मानव जीन्स के विकास का पता लगाने के लिए परिष्कृत कंप्यूटर सॉफ़्टवेयर का उपयोग किया। मानव के ऐसे जीन्स बैक्टीरिया से आए हो सकते थे जो पहली बार वर्टिब्रेट्स में पाए गए और पहले किसी पशु में नहीं थे। खासकर, तब उनके मिलते-जुलते जीन्स आज के माइक्रोब्स में मिल रहे हों। डॉटरटी बताते हैं कि ऐसे दर्जनों संभावित जीन्स में से एक ने उन्हें एकदम हतप्रभ कर दिया।
यह जीन था इंटर-फोटोरिसेप्टर रेटिनॉइड-बाइंडिंग प्रोटीन या आईआरबीपी। इसके बारे में पहले से पता था कि यह दृष्टि के लिए काफी अहम है। यह जिस प्रोटीन को एनकोड करता या समेटता है, वह रेटिना और उसे घेरनेवाली कोशिकाओं की पतली परत इपिथेलियम के बीच की जगह में रहता है। वर्टिब्रेट की आंख में जब प्रकाश रेटिना के प्रकाश-संवेदी फोटो-रिसेप्टर पर पड़ता है तो विटामिन-ए कॉम्प्लेक्स चल निकलते हैं। इससे एक विद्युत तरंग उठती है जो ऑप्टिक नस को सक्रिय कर देती है। तब आईआरबीपी जीन इन अणुओं को फिर से सीधा करने के लिए एपिथेलियम में शिफ्ट कर देता है। अंत में यह जीन दुरुस्त किए गए अणुओं को वापस फोटो-रिसेप्टर को भेज देता है। इस तरह आईआरबीपी जीन सभी वर्टिब्रेट्स की दृष्टि के लिए नितांत आवश्यक है।
वर्टिब्रेट्स का आईआरबीपी जीन बैक्टीरिया के उन जीन्स से सबसे ज्यादा मिलता है जिन्हें पेप्टिडेज़ कहा जाता है और जिनके प्रोटीन दूसरे प्रोटीन्स को रीसाइकल कर देते हैं। चूंकि आईआरबीपी सभी वर्टिब्रेट्स में पाया जाता है, लेकिन आम तौर पर उनके निकटतम इनवर्टिब्रेट्स जीवों में नहीं होता तो डॉटरटी और उनके सहयोगियों का प्रस्ताव है कि 50 करोड़ से अधिक साल पहले माइक्रोब्स ने एक पेप्टिडेज़ जीन सभी जीवित वर्टिब्रेट्स के एक पूर्वज में ट्रांसफर कर दिया था। एक बार यह जीन वहां पहुंच गया तो प्रोटीन का पुनर्चक्रण का काम रुक गया और जीन ने खुद को दो बार दोहराया। यह साफ करता है कि आईआरबीपी के पास मूल पेप्टिडेज़ डीएनए की चार प्रतियां क्यों हैं। डॉटरटी का सुझाव है कि इस प्रोटीन में प्रकाश-संवेदी अणुओं को बाँधने की थोड़ी क्षमता हो सकती है । अन्य म्यूटेशनों ने तब एक अणु में अपना परिवर्तन पूरा किया जो कोशिकाओं से बच सकता था और शटल के रूप में काम कर सकता था।
वर्टिब्रेट्स के पास कैमरा जैसी आंखें होती हैं जो साफ-साफ अलग-अलग चीजें देख सकती हैं। इनका विकास बहुत सारे संक्रमण का नतीजा है। डार्विन का मानना था कि वर्टिब्रेट्स की आंख इवोल्यूशन की चरणबद्ध प्रक्रिया से ज़रिए पेश प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को चुनौती देने का सबसे ज्यादा दमखम रखती है। वर्टिब्रेट्स की आंख तक पहुंचने के बहुत सारे इवोल्यूशनरी संक्रमण पेश किए जा चुके हैं, लेकिन कुछ पहलू वर्टिब्रेट्स के लिए विशिष्ट हैं और उनकी कोई कड़ी नहीं मिलती। वर्टिब्रेट्स और इनवर्टिब्रेट्स की दृष्टि में एक अहम अंतर इंटर-फोटोरिसेप्टर रेटिनॉइड-बाइंडिंग प्रोटीन या आईआरबीपी से जुड़ा है जिसे आरबीपी3 भी कहते हैं। यह विभिन्न कोशिकाओं के बीच रेटिनॉयड की शटलिंग के ज़रिए वर्टिब्रेट्स के दृष्टि चक्र में कोशिकाओं की विशिष्टता व भौतिक अलगाव को संभव बनाता है।
दरअसल इनवर्टिब्रेट्स की आख से वर्टिब्रेट्स की आंख तक की यात्रा उन कोशिकाओं का भौतिक अलगाव है जो प्रकाश संवेदी रेटिनयॉयड्ल को एंजाइम के अंदाज़ में रीसाइकल करता है और कोशिकाओं को प्रकाश के प्रति संवेदनशील बनाता है। प्रकाश को सेंस करने का काम फोटोरिसेप्टर कोशिकाओं में होता है, जबकि एंजाइम की तरह रीसाइकल या रीजनरेट करने का काम भौतिक रूप से अलग की गई कोशिकाओं में होता है जिन्हें रेटिनल पिगमेंट इपिथीलियम (आरपीई) कोशिका कहा जाता है। माना जाता है कि वर्टिब्रेट्स में प्रकाश संवेदी और रेटिनॉयल री-जनेशन कोशिकाओं के अलगाव के कारण ही ऐसे जीव कम रोशनी में भी देख पाते हैं।