हमारी राजनीतिक पार्टियां इस कदर अंधी हैं कि उन्हें दिखाई नहीं देता कि इस साल केवल जुलाई-सितंबर की तिमाही में ही सरकारी तेल कंपनियों को 14,079.30 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है। बुधवार को इंडियन ऑयल ने सितंबर तिमाही के नतीजे घोषित किए तो पता चला कि बिक्री साल भर पहले की तुलना में 15.81 फीसदी बढ़कर 89145.55 करोड़ रुपए हो जाने के बावजूद उसे 7485.55 करोड़ रुपए का घाटा उठाना पड़ा है। इससे पहले दो अन्य सरकारी तेल कंपनियों में से हिंदुस्तान पेट्रोलियम (एचपीसीएल) ने उक्त तिमाही में 3364.48 करोड़ रुपए और भारत पेट्रोलियम (बीपीसीएल) ने 3229.27 करोड़ रुपए का घाटा घोषित किया है।
कंपनियों को यह घाटा डीजल, रसोई गैस और केरोसिन/मिट्टी तेल को लागत से कम दाम पर बेचने से हो रहा है। अभी हर दिन के घाटे का अनुमान 333 करोड़ रुपए का है। बता दें कि जून 2010 से तेल कंपनियों को पेट्रोल के दाम तय करने की आजादी मिल गई है। लेकिन डीजल, रसोई गैस व केरोसिन के दाम अब भी सरकार तय करती है। ये तीनों देश में बेचे जानेवाले सारे पेट्रोलियम पदार्थों का लगभग तीन-चौथाई हैं। विपक्ष सरकार की नीतियों में खामी पकड़ने के बजाय इस बात पर अड़ा है कि डीजल, रसोई गैस व केरोसिन के दाम न बढ़ाए जाएं। तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पेट्रोल पर तो बख्श दिया। लेकिन धमकी दी है कि बाकी तीन के दाम बढ़ाए गए तो वे यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लेंगी।
ऐसे में जहां सरकार की हालत सांप-छछूदर जैसी हो गई है, वहीं तेल कंपनियों के वजूद पर ही खतरा मंडराने लगा है। इंडियन ऑयल के निदेशक (वित्त) पी के गोयल ने बुधवार को राजधानी दिल्ली में तिमाही नतीजों की घोषणा के बाद संवाददाताओं को बताया कि, “हम दिसंबर अंत या जनवरी के पहले हफ्ते में अपने पूंजी खर्च योजना की समीक्षा करेंगे। अगर हम पर ज्यादा उधार रहा तो पूंजी खर्च में कटौती कर देंगे।” बता दें कि इंडियन ऑयल ने चालू वित्त वर्ष 2011-12 में 14,800 करोड़ रुपए के पूंजी निवेश की योजना बना रखी है।
कंपनियों पर बोझ बढ़ने जाने की खास वजह यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ते जा रहे हैं। बीते वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान भारत जो कच्चा तेल आयात करता है, उसकी औसत कीमत 85.09 डॉलर प्रति बैरल थी। उसमें मौजूदा वित्त वर्ष के दौरान 30 फीसदी वृद्धि हो गई है और यह लगभग 110 डॉलर प्रति बैरल हो गई है। चालू नवंबर माह में ही ब्रेंट कच्चे तेल का दाम करीब 6 फीसदी बढ़कर 114.50 डॉलर प्रति बैरल हो गया है। हालत उस समय और खराब हो गई जब रुपए की विमिमय दर डॉलर के सापक्ष 45 रुपए से गिर कर 49.90 रुपए हो गई। डॉलर की कीमत में हर एक रुपए की बढ़त पर तेल कम्पनियों का घाटा साल में 8000 करोड़ रुपए बढ़ जाता है।
केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने पिछले हफ्ते बताया था कि सरकारी तेल कपंनियों को मार्च 2012 तक मिट्टी के तेल, रसोई गैस व डीजल की बिक्री पर घाटा या अंडर-रिकवरी 1.32 लाख करोड़ रुपए तक हो सकती है। पिछले वित्त वर्ष में यह अंडर-रिकवरी 78,190 करोड़ रुपए थी। इसके ऊपर से तेल कम्पनियों पर 1,29,989 करोड़ रुपए के ऋण का भी बोझ है जो कार्यशील पूंजी और कच्चे तेल के आयात में लगनेवाली डॉलर मुद्रा के कारण है।
पिछले साल तक सरकार का फार्मूला यह था कि तेल कंपनियों को होनेवाली अंडर-रिकवरी का कम से कम आधा हिस्सा वह कैश सब्सिडी देकर पूरा कर देती थी, जबकि करीब एक तिहाई हिस्सा ओएनजीसी, ऑयल इंडिया व गैल जैसी पेट्रोलियम उत्पादक कंपनियों को देना होता था। समस्या यह है कि ओएनजीसी व अन्य अपस्ट्रीम तेल कंपनियां इस साल सब्सिडी का बोझ बांटने का विरोध कर रही हैं।
समस्या यह भी है कि सरकार ने चालू वित्त वर्ष में अभी तक तेल कंपनियों को जून 2011 की तिमाही में हुई 43,526 करोड़ रुपए की अंडर-रिकवरी में से केवल 15,000 करोड़ रुपए नकद देने के वादे के साथ एक पत्र भर दिया है। अपस्ट्रीम तेल कंपनियों ने इसके ऊपर से 21,633 करोड़ रुपए की सब्सिडी दी है। इसके बाद सितंबर तिमाही में तेल कंपनियों की अंडर-रिकवरी 21,374 करोड़ रुपए रही है। इस तरह पहले छह महीनों में इनकी कुल अंडर-रिकवरी 64,900 करोड़ रुपए हो चुकी है।
फिलहाल अंडर-रिकवरी और कर्ज के भारी-भरकम बोझ के चलते सरकारी तेल कंपनियों की हालत यह हो गई है कि वे कभी भी कच्चे तेल का आयात व देश भर में पेट्रोलिमय पदार्थों की सप्लाई बंद कर सकती है।