भारतीय बैंकों में इस समय स्टाफ की भारी कमी है। हालत यह है कि ज्यादातर ब्रांचों में मैनेजर आठ बजे रात से पहले घर नहीं जा सकते। यह कहना है देश के सबसे बड़े बैंक, भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के चेयरमैन प्रतीप चौधरी का। चौधरी मंगलवार को मुंबई में इंडियन बैंक्स एसोसिएशन (आईबीए) और उद्योग संगठन फिक्की द्वारा आयोजित सालाना सम्मेलन फायबैक-2012 में बोल रहे थे।
इसी सम्मेलन में बोस्टन कंसल्टेंसी ग्रुप (बीसीजी) की तरफ से भारतीय बैंकों में उत्पादकता की दशादिशा पर एक रिपोर्ट पेश की गई। इस रिपोर्ट के मुताबिक, “भारतीय बैंकों को ज्यादा वैज्ञानिक व उत्पादक श्रमशक्ति नियोजन की दरकार है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इस समय अपने मौजूदा स्टाफ के 8 फीसदी के बराबर नई नियुक्तियां कर रहे हैं। उन्हें इसे बढ़ाकर लगभग दोगुना, 14 फीसदी करने की जरूरत है। निजी बैंकों में कर्मचारियों के छोड़कर चले जाने की भारी समस्या है। सेल्स से बाहर का 25 फीसदी और फ्रंट ऑफिस समेत बाकी स्टाफ का 40 फीसदी हिस्सा उन्हें हर साल छोड़कर चला जा रहा है। इससे बैंकों की उत्पादकता व ग्राहक सेवाएं प्रभावित हो रही हैं। भारतीय बैंकों को अगले पांच सालों में 9 से 11 लाख नए लोगों को लेना पड़ेगा। इसका लगभग आधा हिस्सा स्टाफ के छोड़कर जाने के चलते भर्ती करना पड़ेगा।” नए लिए जानेवाले 9 से 11 लाख लोगों में से 8-9 लाख लोगों को तो अगले तीन सालों में ही रखना होगा।
रिपोर्ट के अनुसार अच्छी बात यह है कि 60 फीसदी ग्राहक अपने बैंकों पर काफी ज्यादा भरोसा करते हैं और वे उनके कामकाज को पारदर्शी भी मानते हैं। लेकिन ग्राहक बड़े बैंकों से ज्यादा छोटे बैंकों को पसंद करते हैं। चिंता और चुनौती की बात यह है कि भारत में मोबाइल फोन की व्यापक पहुंच (करीब 90 करोड़ मोबाइल कनेक्शन) के बावजूद मोबाइल बैंकिंग का चलन नहीं बढ़ पा रहा है। विचित्र बात यह है कि बैंकों के जिन कर्मचारियों ने मोबाइल बैकिंग सेवाओं को बेचा है, उनमें से खुद बमुश्किल आधे ही कर्मचारी इन सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं।
सार्वजनिक और निजी, दोनों ही क्षेत्रों के बैंकों के सामने कर्मचारी उत्पादकता की चुनौती है। हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में कर्मचारी उत्पादकता पिछले पांच सालों में 18 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही है। लेकिन यह गति आगे बरकरार नहीं रखी जा सकती। वहीं, निजी क्षेत्र के बैंकों में कर्मचारी उत्पादकता पिछले पांच सालों से या तो ठहराव का शिकार है या घट रही है।
बीसीजी का सुझाव है कि भारतीय बैंकों को अपने नौकरशाहाना तौरतरीके पर अंकुश लगाना होगा। इस समय तमाम फैसलों को तीन स्तर पर अनुमोदित कराना पड़ता है। इसलिए फैसले लेने नौ-नौ दिन तक लग जाते हैं। कर्मचारी औसतन हर हफ्ते दस घंटे मींटिंगों में बिताते हैं। सर्वे से पता चला है कि उनमें से आधे लोग मानते हैं कि मीटिंगों में जाना समय की बरबादी है।