इधर हर कोई सोने में चल रही तेजी की वजह यूरोप के ऋण संकट और अमेरिका में आई आर्थिक सुस्ती को बता रहा है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रॉयटर्स के बाजार विश्लेषक क्लाइड रसेल का कहना है कि इसकी असली वजह दुनिया के केंद्रीय बैंकों की खरीद के अलावा भारत व चीन के ग्राहकों की बढ़ी हुई मांग है जहां सोना खरीदना मुद्रास्फीति के बचाव के साथ-साथ स्टेटस सिम्बल भी बनता जा रहा है।
क्लाइड रसेल का कहना है कि इस साल सोने के पेशेवर निवेशकों की मांग कमोबेश अपरिवर्तित रही है। इसे सोने के ईटीएफ (एक्सचेंज ट्रेडेड फंड) और फ्चूयर सौदों की स्थिति में देखा जा सकता है। उनके मुताबिक, यह जानना लगभग असंभव है कि एशिया के ग्राहक क्यों सोना खरीद रहे हैं। लेकिन इस आशंका से इसका बहुत कम लेना-देना है कि ग्रीस सरकार अपनी ऋण अदायगी में चूक कर सकती है या यूरोप में बैंकिंग का संकट विकराल हो सकता है।
बहुत संभव है कि चीन और भारत के लोग अपने देशों में चल रही मुद्रास्फीति के बेअसर करने के लिए सोना खरीद रहे हैं। यह भी हो सकता है कि इन दोनों देशों में बढ़ी हुई समृद्धि ने लोगों में सोने की भूख और बढ़ा दी हो और वे स्टेटस सिम्बल के लिए ज्यादा सोना खरीद रहे हों। अगर ऐसा है तो अगर चीन व भारत में मुद्रास्फीति पर काबू नहीं पाया जा सका तो सोना इस साल 30 फीसदी और महंगा हो सकता है।
लेकिन यहीं पर सवाल उठता है कि अगर पश्चिमी देशों के पेशेवर निवेशक दुनिया में आसन्न आर्थिक मंदी और यूरोप के ऋण संकट को लेकर चिंतित हैं तो वे गोल्ड ईटीएफ या ऐसे अन्य प्रपत्रों में अपना निवेश बढ़ा क्यॆं नहीं रहे हैं? आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े गोल्ड ईटीएफ – एसपीडीआर गोल्ड ट्रस्ट में इस साल निवेशित सोने की मात्रा में कमी आई है। इसका मतलब है कि विकसित देशों में पोर्टफोलियो मैनेजरों व रिटेल निवेशकों की तरफ से सोने की ज्यादा मांग नहीं आ रही है।
इस फंड ने साल की शुरुआत 1280 टन सोने की थी। यह मात्रा 8 अगस्त तक 1309 टन पर पहुंच गई। लेकिन 7 सितंबर तक घटकर 1232 टन पर आ गई है। कुल मिलाकर देखें तो फंड में लगे सोने की मात्रा 1200 से 1300 टन की रेंज में स्थाई भाव से डोलती रही है। दरअसल पिछले साल एसपीडीआर फंड की स्थिति ज्यादा मजबूत थी। 2009 में उसके पास 1133 टन सोना था। यह 2010 के ज्यादातर महीनों में 1300 टन के ऊपर बना रहा।
इसी तरह कॉमेक्स 100-औंस के गोल्ड फ्यूचर्स की बात करें तो इसमें ओपन इंटरेस्ट साल भर से 3.30 लाख सौदों के आसपास अटका हुआ है। यह भी अगस्त में 3.85 लाख सौदों के शिखर पर पहुंचने के बाद नीचे आ चुका है। पिछले साल इसमें ओपन इंटरेस्ट काफी ज्यादा था और अक्टूबर 2010 में 4.50 लाख के आसपास था। फिर सोने की मांग आ कहां से रही है?
विश्व स्वर्ण परिषद के मुताबिक अधिकांश मांग भौतिक सोने की है। इसमें दो श्रेणियां खास अहम हैं – आभूषण और बार व सिक्के। इस साल जून तक सोने के बार व सिक्कों की मांग 37 फीसदी बढ़कर 307.7 टन पर पहुंच गई है, जबकि आभूषणों की मांग 6 फीसदी बढ़कर 442.5 टन हो गई है। इन दो श्रेणियों को मिलाकर सोने की लगभग 82 फीसदी खपत होती है। इसलिए इनमें मांग का जरा-सा अरक-फरक सोने के नजरिए और दाम की दुनिया को बदल देता है।
इन दो श्रेणियों को चलाने में सबसे प्रमुख हैं भारत व चीन। भारत की मांग अप्रैल से जून 2011 के दौरान साल भर पहले की समान अवधि की तुलना में 38 फीसदी बढ़ी है, जबकि चीन में 25 फीसदी। इसमें भी अगर अलग-अलग देखें तो भारत में बार व सिक्कों की मांग 78 फीसदी और चीन में 44 फीसदी बढ़ी है। इसका मतलब यही हुआ कि इन देशों में लोग भौतिक सोने में निवेश बढ़ा रहे हैं जिसका उद्देश्य मुद्रास्फीति के खिलाफ हेजिंग हो सकता है।
क्या अगर भारत व चीन में मुद्रास्फीति नीचे आने लगी तो सोने की मांग घट जाएगी? शायद नहीं। लेकिन इससे 2012 में जरूर इन देशों में सोने की खरीद घट सकती है। दूसरी तरफ अगर विकसित देशों के निवेशक इस साल यूरोप व अमेरिका के संकट के समय गोल्ड ईटीएफ व फ्यूचर्स में निवेश नहीं बढ़ा रहे हैं तो अगली साल वे ऐसा क्यों करेंगे। फिलहाल जब तक भारत व चीन में मुद्रास्फीति आसमान पर चढ़ी हुई है और अमेरिका व यूरोप पर आर्थिक संकट के बादल मंडरा रहे हैं, तब तक सोने के दाम घटने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।