भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। उम्मीद थी कि बीते वित्त वर्ष 2011-12 की आखिरी तिमाही में अर्थव्यवस्था या जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की वृद्धि दर 6.1 फीसदी रहेगी। लेकिन केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) की तरफ से गुरुवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक देश का जीडीपी जनवरी-मार्च 2012 के दौरान मात्र 5.3 फीसदी बढ़ा है। इसे मिलाकर पूरे वित्त वर्ष 2011-12 की आर्थिक विकास दर 6.5 फीसदी पर आ गई है, जबकि फरवरी में इसका अग्रिम अनुमान 6.9 फीसदी रखा गया था।
जनवरी-मार्च तिमाही की आर्थिक वृद्धि दर साल 2003 में इससे नीचे 3.6 फीसदी रही थी। इस तरह अभी की आर्थिक वृद्धि दर नौ सालों की सबसे सुस्त चाल है। पूरे वित्त वर्ष 2011-12 में जीडीपी का 6.5 फीसदी बढ़ना भी नौ सालों का न्यूनतम स्तर है। तमाम अर्थशास्त्रियों को लग रहा था कि जनवरी-मार्च 2012 की तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर 5.5 फीसदी से 7.3 फीसदी रह सकती है। लेकिन हकीकत इससे भी खराब निकली। इससे ठीक पहले अक्टूबर-दिसंबर 2011 की तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर 6.1 फीसदी और साल भर पहले जनवरी-मार्च 2011 की तिमाही में 9.2 फीसदी दर्ज की गई थी।
इन आंकड़ों के जारी होने के बाद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने ढांढस बंधाया कि सारे नकारात्मक कारक अब बदतर से बेहतर होने लगे हैं। ह र तरफ से हालात के सुधरने के संकेत मिल रहे हैं। आर्थिक विकास की गाड़ी अब फिर से पटरी पर लौट आएगी। वित्त मंत्री की तरफ से जारी लिखित बयान में कहा गया है, “सरकार राजकोषीय व चालू खाते के मोर्चे पर असंतुलन को दूर करने के हरसंभव उपाय करेगी। इससे मुद्रास्फीति की आशंका को थामने में मदद मिलेगी और (विदेशी निवेशकों में) ज्यादा पूंजी प्रवाह के लिए भरोसा बनेगा। साथ ही घरेलू निवेश में सुधार आएगा।”
वैसे वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था के यूं पस्त होने का बड़ा दोष रिजर्व बैंक की कड़ी मौद्रिक नीति पर डाला है। उनका कहना था कि कड़ी मौद्रिक नीति से ब्याज की लागत काफी बढ़ गई। ऊपर से वैश्विक स्तर पर बिगड़े माहौल से देश में निजी निवेश के बढ़ने पर नकारात्मक असर डाला। देश में निवेश का माहौल खनन क्षेत्र में पर्यावरण नीति के चलते आई बाधाओं के चलते भी खराब हुआ। हालांकि वित्त मंत्री का यह कहना ज्यादा जमता नहीं है क्योंकि जनवरी-मार्च 2012 में खनन क्षेत्र साल भर पहले की समान अवधि की अपेक्षा 4.3 फीसदी बढ़ा है, जबकि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र बढ़ने के बजाय 0.3 फीसदी सिकुड़ गया है।
प्रमुख उद्योग संगठन फिक्की के महासचिव राजीव कुमार का कहना है, “अर्थव्यवस्था को पूरी तरह संकट में फंसने से रोकने के लिए तत्काल जरूरी व साहसिक कदम उठाने की जरूरत है। संकट को हर हाल में रोका जाना चाहिए।” बैंक ऑफ बड़ौदा की मुख्य अर्थशास्त्री रूपा रेगे नित्सुरे का कहना है, “यह सरकार के लिए बेहद अहम संकेत है। उसके लिए करो या मरो की स्थिति आ गई है। भारत सरकार को अब पैनिक बटन दबाना ही होगा। अगर वह अब भी नहीं चेती तो भारत की संप्रभु रेटिंग पर खतरा बढ़ सकता है।”
दिक्कत यह है कि विदेशी निवेशकों के सुर में सुर मिलाते हुए हमारे अर्थशास्त्री जिस तरह सब्सिडी घटाने और मल्टी ब्रांड रिटेल को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के लिए खोलने जैसे कदमों की वकालत कर रहे हैं, सरकार चाहकर भी उस दिशा में कदम नहीं बढ़ा पा रही है क्योंकि विपक्ष खटाक से राजनीतिक बवाल खड़ा कर दे रहा है। गुरुवार को पेट्रोल के दाम बढ़ाने के खिलाफ आयोजित भारत बंद इसका साक्षात प्रमाण है।