1 जनवरी 2011 से कोई भी नेता या अफसर म्यूचुअल फंड में निवेश करते वक्त अपनी पहचान नहीं छिपा सकता। उसे साफ-साफ बताना होगा कि वह एमपी, एमएलए या एमएलसी है कि नहीं। और, यह भी कि वह अगर नौकरशाह है तो सरकार के किस विभाग में काम करता है। यहां तक कि देश के वर्तमान व पुराने प्रधानमंत्री और राज्यों के वर्तमान व पूर्व मुख्यमंत्रियों या राज्यपालों तक को म्यूचुअल फंड में निवेश करते वक्त अपने बारे में पूरी जानकारी देनी होगी। यह अनिवार्यता सेबी द्वारा नए साल से म्यूचुअल फंडों पर लागू नए केवाईसी (नो योर कस्टमर) नियमों के तहत अपनाई जाएगी।
मौजूदा केवाईसी नियमों के तहत निवेशक को मोटामोटी बस इतना बताना होता है कि वह सरकारी नौकरी में है या निजी क्षेत्र में, बिजनेस में है या कृषि में और वह प्रोफेशनल है, रिटायर्ड है या गृहिणी। इससे ज्यादा उसे बताने की जरूरत नहीं होती। अभी म्यूचुअल फंड स्कीमों में 50,000 रुपए से कम के निवेश पर केवाईसी मानक तो छोड़िए, पैन नबर तक देना जरूरी नहीं होता। लेकिन नए साल से हर फंड हाउस को छोटे या बड़े हर निवेश पर नए केवाईसी मानकों का पालन करना होगा। उन्हें निवेशक के पैन का विवरण, पते का प्रमाण और फोटोग्राफ जुटाना होगा। और, यह नियम नए ही नहीं, पुराने निवेशकों पर भी लागू होगा। म्यूचुअल फंडों का साझा मंच एम्फी (एसोसिएशन ऑफ म्यूचुअल फंड्स इन इंडिया) इस बारे में पूरी सूचना सभी फंड हाउसों को भेज चुका है।
सेबी द्वारा लागू किए जा रहे नए केवाईसी मानकों का मकसद म्यूचुअल फंडों को मनी लॉन्ड्रिंग या काले धन को सफेद बनाने का जरिया बनाने से रोकना है। अभी तमाम भ्रष्ट नेता और अफसर अपनी काली कमाई 50,000 रुपए से कम हिस्से में बिना अपनी पहचान जाहिर किए निवेश करते रहते हैं। लेकिन 1 जनवरी 2011 से उनके लिए ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं होगा। अगर कोई भी म्यूचुअल फंड केवाईसी मानकों का पालन नहीं करता तो उसे इसके लिए दंडित किया जाएगा। उद्योग के जानकारों का कहना है कि नए मानकों के लागू होने से सेबी कम से कम म्यूचुअल फंडों में नेताओं व अफसरों के निवेश का पूरा ब्यौरा अपने पास रख सकता है। हालांकि सीधे शेयर बाजार का निवेश अब भी काफी कुछ अंधेरे में रहेगा।
बता दें कि इससे पहले भारतीय रिजर्व बैंक मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने के लिए बैंकों को राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों (पॉलिटिकली एक्सपोज्ड परसंस – पीईपी) से डील करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने का निर्देश दे चुका है। उसने ऐसे लोगों की उच्चस्तरीय निगरानी की जरूरत पर बल दिया है। लेकिन सरकारी विभागों व कंपनियों में कार्यरत लोगों को उसने ‘लो-रिस्क’ कस्टमर ही माना है।