चार साल पहले कोरोना में फंसने के बाद जबरदस्त शोर मचा कि चीन से दुनिया के तमाम देश दूरी बना रहे हैं और ‘चाइना प्लस वन’ की नीति अपना रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा भारत को मिलेगा। लगा कि भारत अब दुनिया भर में फैले चीन के निर्यात बाज़ार पर कब्ज़ा कर लेगा। लेकिन यह भी मोदी सरकार के देश के भीतर उछाले गए तमाम जुमलों की ही तरह अंतरराष्ट्रीय सब्ज़बाग व बड़बोलापन साबित हुआ। चीनऔरऔर भी

चीन सरकार द्वारा घोषित किया गया 1.4 लाख करोड़ डॉलर का पैकेज़ डेढ़ महीने के भीतर उठाया गया दूसरा बड़ा कदम है। इसका लगभग 60% हिस्सा स्थानीय सरकारों को छिपे हुए ऋणों से मुक्ति दिलाने के लिए है। इससे पहले वहां की सरकार बैंकों के लिए ज्यादा धन और घर खरीदनेवालों को टैक्स में रियायत दे चुकी है। वेल्थ व निवेश प्रबंधन में लगी वैश्विक वित्तीय फर्म नोमुरा का आकलन है कि चीन का वित्तीय प्रोत्साहन पैकेजऔरऔर भी

विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के धन का भारतीय शेयर बाज़ार से निकलकर चीन के शेयर बाज़ार में जाने का सिलसिला रुकने के बजाय अब बढ़ सकता है। बीते हफ्ते शुक्रवार को ही चीन की सरकार ने अपनी सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए 10 लाख करोड़ युआन या 1.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की है। यह पैकेज कितना बड़ा है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हमारी समूचीऔरऔर भी

शेयर बाज़ार और शेयरों के भाव धन के प्रवाह से चलते हैं। धन का प्रवाह लोगों के पास ज़रूरत के ऊपर इफरात धन से बनता है। इफरात धन खत्म तो शेयर बाज़ार भी खत्म। अब चूंकि वित्तीय जगत ग्लोबल हो गया है तो बेहतर रिटर्न की तलाश में दुनिया भर के लोगों का इफरात धन अच्छे अवसरों की खाक छानता फिरता है। ताज़ा उदाहरण है विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) का। जब तक उन्हें लगा कि उनका धनऔरऔर भी

शेयर बाज़ार के निवेशक को न तो परम आशावादी होना चाहिए और न ही चरम निराशावादी। उसे दरअसल घनघोर यथार्थवादी होना चाहिए। आम सामाजिक व राजनीतिक जीवन में जिसे अवसरवादी होना भी कहते हैं। जैसी बहे बयार, पीठ तब तैसी दीजे। लेकिन अवसरवादी होने में नकारात्मकता है, जबकि यथार्थवादी होना सकारात्मक सोच है। जो जैसा है, उसे वैसा ही देखना और स्वीकार करना। शेयर बाज़ार उठता है, गिरता है। फिर उठ जाता है। यह उसका स्वभाव है।औरऔर भी