Ye galt ahe agar Meera ko moha hota to o aajivan bhagwan Shri Krishna na ki bhagti or prem nahi krti ….to fir Radha ko bhi moha hona chai ye to fir aap ye bhi kahi ye ki Radha bhi mukt nahi he….Meera ki bhakti nisavrth thi or o bhgwan me samai hue he usko mukt hone ki Kay aavshkta he….
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पहले यह समझें कि मुक्ति का मतलब क्या है? राग, द्वेष व मोह ही हमें इस भव संसार से बांधते हैं और मन
इस बंधन का माध्यम बनता है। जब आप मन को राग, द्वेष व मोह से मुक्त कर लेते हैं तो इस भव संसार से आपकी कोई इच्छा नहीं बचती। इच्छाओं के खत्म होते ही आप जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष की तरफ बढ़ जाते हो। मेरा कहने का तात्पर्य यही था कि मूल को समझा जाए और प्रतीकों में न उलझकर रह जाया जाए।
देखिए मीरा तो कृष्ण की मूर्ति में समाई हुई है तो क्या भगवान मे समाजाने के बाद भी कोई मुक्त नही? बस मुझे आपसे यही कहना था …
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आपकी बात सही है। लेकिन मरने के बाद तो सभी भगवान में समा जाते हैं। फिर भी मुक्त नही होते। फिर अपने यहां भगवान कोई अलग नहीं, बल्कि इंसान का उच्चतर रूप माना गया है। पाली भाषा का श्लोक है –
भग्ग रागो, भग्ग दोसो, भग्ग मोहो अनासवो।
भग्गस्य पापका धम्मा भगवा तेन पबुच्चति।।
अर्थात, जिसने अपने अंदर के राग, द्वेष व मोह को भग्न कर लिया हो और आश्रवहीन भाग्यवान होकर इसी जीवन में विमुक्ति के वैभव का ऐश्वर्यमय जीवन जीता हो, वही भगवान कहलाता है।
Kitni ajeeb baat h na k ishwar Prem ko aap moh bol rahe h? Aise to moh ye b hua k aap mukti chahte h. Aapko mukti se b moh hai kya? Ishwar nirakar aur sakar dono roop me h. Nirakar ka darshan hum nature ko dekh k kar sakte h aur sakar har kisi k liye possible ni. Uske liye Prem chahiye. Aur isi jeevan me kese hogi raag dwesh se mukti? Ishwar tak pahuchne k 4 maarg h. Agar aap Gyan Marg apnate h to iska ye ni matlab k bhakti maarg galat hi gaya. Kisi maarg ko galat bolna ye apko ishwar k kitne paas layega?
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अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी मान्यता है। मैं तो यही समझता हूं कि जो भी चीज़ बांधती है, वह मुक्ति का माध्यम नहीं बन सकती। सब कुछ प्रवाह का हिस्सा है। कुछ भी स्थिर नहीं। अंदर-बाहर सब कुछ हर पल बराबर बदल रहा है। अगर आप कहीं से भी खुद को स्थिर मानते हो तो आप बंधे हुए हो। जब सारे आग्रह, दुराग्रह तोड़कर आप प्रवाह का हिस्सा बन जाते हो तब आप मुक्त और दृष्टा बन जाते हो। कहते हैं यह इंद्रियातीत अवस्था होती है। इसलिए मैं तो बता नहीं सकता कि यह अवस्था क्या होती है। मगर होती तो है और जीवित रहते ही यह अवस्था हासिल की जाती है।
Ye galt ahe agar Meera ko moha hota to o aajivan bhagwan Shri Krishna na ki bhagti or prem nahi krti ….to fir Radha ko bhi moha hona chai ye to fir aap ye bhi kahi ye ki Radha bhi mukt nahi he….Meera ki bhakti nisavrth thi or o bhgwan me samai hue he usko mukt hone ki Kay aavshkta he….
पहले यह समझें कि मुक्ति का मतलब क्या है? राग, द्वेष व मोह ही हमें इस भव संसार से बांधते हैं और मन
इस बंधन का माध्यम बनता है। जब आप मन को राग, द्वेष व मोह से मुक्त कर लेते हैं तो इस भव संसार से आपकी कोई इच्छा नहीं बचती। इच्छाओं के खत्म होते ही आप जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष की तरफ बढ़ जाते हो। मेरा कहने का तात्पर्य यही था कि मूल को समझा जाए और प्रतीकों में न उलझकर रह जाया जाए।
देखिए मीरा तो कृष्ण की मूर्ति में समाई हुई है तो क्या भगवान मे समाजाने के बाद भी कोई मुक्त नही? बस मुझे आपसे यही कहना था …
आपकी बात सही है। लेकिन मरने के बाद तो सभी भगवान में समा जाते हैं। फिर भी मुक्त नही होते। फिर अपने यहां भगवान कोई अलग नहीं, बल्कि इंसान का उच्चतर रूप माना गया है। पाली भाषा का श्लोक है –
भग्ग रागो, भग्ग दोसो, भग्ग मोहो अनासवो।
भग्गस्य पापका धम्मा भगवा तेन पबुच्चति।।
अर्थात, जिसने अपने अंदर के राग, द्वेष व मोह को भग्न कर लिया हो और आश्रवहीन भाग्यवान होकर इसी जीवन में विमुक्ति के वैभव का ऐश्वर्यमय जीवन जीता हो, वही भगवान कहलाता है।
Kitni ajeeb baat h na k ishwar Prem ko aap moh bol rahe h? Aise to moh ye b hua k aap mukti chahte h. Aapko mukti se b moh hai kya? Ishwar nirakar aur sakar dono roop me h. Nirakar ka darshan hum nature ko dekh k kar sakte h aur sakar har kisi k liye possible ni. Uske liye Prem chahiye. Aur isi jeevan me kese hogi raag dwesh se mukti? Ishwar tak pahuchne k 4 maarg h. Agar aap Gyan Marg apnate h to iska ye ni matlab k bhakti maarg galat hi gaya. Kisi maarg ko galat bolna ye apko ishwar k kitne paas layega?
अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी मान्यता है। मैं तो यही समझता हूं कि जो भी चीज़ बांधती है, वह मुक्ति का माध्यम नहीं बन सकती। सब कुछ प्रवाह का हिस्सा है। कुछ भी स्थिर नहीं। अंदर-बाहर सब कुछ हर पल बराबर बदल रहा है। अगर आप कहीं से भी खुद को स्थिर मानते हो तो आप बंधे हुए हो। जब सारे आग्रह, दुराग्रह तोड़कर आप प्रवाह का हिस्सा बन जाते हो तब आप मुक्त और दृष्टा बन जाते हो। कहते हैं यह इंद्रियातीत अवस्था होती है। इसलिए मैं तो बता नहीं सकता कि यह अवस्था क्या होती है। मगर होती तो है और जीवित रहते ही यह अवस्था हासिल की जाती है।