देश की रक्षा कौन करेगा? हम करेंगे, हम करेंगे, हम करेंगे! गांवो, कस्बों और शहरों के हिंदी माध्यम स्कूलों में बच्चे यह नारा लगाकर ही बड़े होते हैं। कहीं और नौकरी नहीं मिली और सेना में भर्ती हो गए तो सीमा पर हंसते-हंसते शहीद हो जाते हैं। मां-बाप, बीवी-बच्चे बिखर जाते हैं, बिलखते जरूर हैं। पर घर-परिवार, नाते-रिश्तेदार उन पर गर्व करते हैं। इलाके में उनके नाम पर सड़क और विद्यालय बन जाते हैं। लेकिन भावना से अलग हटकर देखें तो उनकी स्थिति तोप में दागे जानेवाले गोलों से अलहदा नहीं है।
पूरा भारतीय रक्षा-प्रतिष्ठान दलाली, भ्रष्टाचार और अमानुषिक व्यवहार की दलदल में धंस चुका है। यह जितना अमेरिका या चीन के बारे में सच है, उससे कहीं ज्यादा सच है भारत के बारे में। सैनिक बड़े अफसरों को गोली मार देते हैं तो अक्सर कहा जाता है कि बंदा तनावग्रस्थ था और उसे छुट्टी नहीं दी जा रही थी। लेकिन हाल ही में जांच के बाद पता चला है कि एक सैनिक ने अफसर को इसलिए गोली मारी थी क्योंकि वह उसके साथ अप्राकृतिक यौनाचार करता था। परिवार से दूर अकेला रह गया रंगरूट अफसरों के घर कैसे नौकर बन जाता है और कैसे उनकी बीवियों के पेटिकोट धोता है, यह इतना नंगा सच है कि इसके लिए अलग से किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है।
भारत यकीनन आंतकवाद से युद्ध लड़ रहा है, कश्मीर में भी पाकिस्तानी घुसपैठिए बराबर घुसे चले आते हैं। लेकिन करगिल के बाद सीमा पर युद्ध की कोई नौबत नहीं आई है। अगर आएगी भी तो आज के दौर में ऐसे किसी भी तनाव को युद्ध के बजाय राजनयिक कौशल से हल करने में समझदारी है। लेकिन आपको शायद ही यकीन आए कि भारत आज की तारीख में दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक है। वह भी लगातार तीन सालों से। चीन और पाकिस्तान से भी बड़ा। आखिर किस युद्ध की तैयारी चल रही है?
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक भारत लगातार तीसरे साल दुनिया में सैनिक साजोसामान का सबसे बड़ा आयातक बना हुआ है। 2008-12 की अवधि में भारत ने दुनिया के 12 फीसदी हथियार आयात किए। 2010 के अंत में उसने हथियारों के आयात में चीन को पीछे छोड़ा तो 2011 और 2012 में भी इसी स्थिति में बना रहा। इस दौरान चीन आयातक से दुनिया में हथियारों का पांचवां सबसे बड़ा निर्यातक बन गया। रिपोर्ट से पता चलता है कि चीन ने पाकिस्तान को बकरा बना रखा है और उसके हथियार निर्यात का 55 फीसदी हिस्सा पाकिस्तान को जाता है। दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा निर्यातक अमेरिका है। उसके बाद रूस, जर्मनी, फ्रांस व चीन का नंबर आता है।
दुनिया की तीसरी महाशक्ति बनने का ख्बाव दिखानेवाले हमारे नीति-नियामकों ने भारत को इस स्थिति में पहुंचा रखा है कि हम अब भी अपने सैनिक साज़ोसामान की मांग का 70 फीसदी हिस्सा आयात से पूरा करते हैं। चालू खाते के घाटे (सीएडी) के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6.7 फीसदी भाग के खतरनाक स्तर तक पहुंच जाने का रोना रोनेवाली हमारी सरकार कहती है कि आयात मांग को घटाना मुश्किल है। पेट्रोलियम तेल और सोने का भंडार देश में कम है। इसलिए उसके आयात की बात समझ में आती है। कोयले जैसे खनिज के भी आयात की बात समझ में आ सकती है। लेकिन अपने हथियार हम खुद क्यों नहीं बना सकते?
बता दें कि नए वित्त वर्ष 2013-14 का रक्षा बजट 2.03 लाख करोड़ रुपए (37.4 अरब डॉलर) का है जिसका करीब 42 फीसदी हिस्सा (85,542 करोड़ रुपए) पूंजीगत खर्च या दूसरे शब्दों में कहें तो साज़ोसामान पर खर्च के लिए है। सालोंसाल से कमोबेश यही स्थिति है। अगर हम इस धन का एक अंश भी देश में ही आयुध-निर्माण की फैक्ट्रियां लगाने पर करते तो हम अब तक चीन की तरह दुनिया में हथियारों के निर्यातक बन चुके होते। लेकिन ऐसा होने पर कॉफिन से लेकर हेलिकॉप्टरों में दलाली खाने का मौका तो खत्म हो गया होता!
ऐसा भी नहीं है कि भारत दुनिया में सामरिक महाशक्ति बनने की संजीदा कोशिश में लगा हो। आज तीन तरफ से समुद्र से घिरे देश में नौसेना की स्थिति बड़ी मजबूत करने की ज़रूरत है। वायुसेना से लेकर थलसेना में जबरदस्त सहयोग की जरूरत है। लेकिन हमारे यहां बड़ी विचित्र स्थिति यह है कि तीनों सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर राष्ट्रपति जैसी मुहर को बनाकर रखा गया है। यकीनन लोकशाही में सेना की अंतिम कमान राजनीति के हाथ में होनी चाहिए। लेकिन कार्यकुशलता के लिए तीनों सेनाओं का प्रोफेशनल प्रमुख होना ज़रूरी है। अभी तो थलसेना अध्यक्ष को ही एक तरह से सैन्य बलों का मुखिया समझा जाता है। बाकी वायुसेना और नौसेना की हैसियत दोयम दर्जे की बनी हुई है। सैन्य बलों के तीनों हिस्सों में सामंजस्य का नितांत अभाव है। एक यीर घाट जाता है तो दूसरा बीर घाट।
संविधान में व्यवस्था है कि सेना देश की आंतिरक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार नहीं है। यह काम राज्यों की पुलिस का है। इसी के मद्देनज़र पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह ने कहा भी था कि आंतरिक मामलों में सेना का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। लेकिन सरकार जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों समेत नक्सल-प्रभावित इलाकों तक में सेना के इस्तेमाल से बाज़ नहीं आती। एक अमानुषिक माहौल में जी रही सेना साधारण मानुषों के बीच पहुंचने पर अक्सर दरिंदगी पर उतर आती है। ऐसे में हमें गंभीरता से सोचना चाहिए कि भारतीय प्रतिरक्षा तंत्र को कैसे दलाली व भ्रष्टाचार से मुक्त किया जाए, देश में ही हथियार निर्माण पर निवेश बढ़ाया जाए और हथियारों का आयात घटाकर देश को इनका निर्यातक बनाया जाए। और, संविधान की भावना का सम्मान करते हुए सुनिश्चित किया जाए कि बांध, बाढ़ से लेकर सड़क और इंफ्रास्ट्रक्चर के अन्य कामों में सेना की मदद जरूर ली जाए, लेकिन आंतरिक सुरक्षा के काम से उसे पूरी तरह मुक्त रखा जाए।