यहां-वहां, जहां-तहां, मत पूछो कहां-कहां। हर जगह शेयरों को खरीदने की जितनी भी सलाहें होती हैं, वे किसी न किसी ब्रोकरेज फर्म या उनकी तनख्वाह पर पल रहे एनालिस्टों की होती हैं। अगर कोई खुद को स्वतंत्र विश्लेषक भी कहता है तो उनकी अलग प्रोपराइटरी फर्म होती है जिससे वह खुद निवेश से नोट बना रहा होता है। क्या इन तमाम बिजनेस चैनलों या समाचार पत्रों में एनालिस्टों या ब्रोकरों की दी गई सलाहों पर भरोसा किया जा सकता है? क्या माना जा सकता है कि इन सलाहों में आपका फायदा कराने की निष्पक्ष नीयत है?
काश! जमाना इतना ही निःस्वार्थ और परोपकारी होता। एक जगह बॉक्सिंग का मैच चल रहा था। दर्शकों के बीच एक आदमी बराबर चिल्लाए जा रहा था – मार दे, स्याले के दांत टूट जाएं। बगल में खड़े मेरे जैसे शक्स को समझ में नहीं आया कि वे किसकी तरफ है क्योंकि रेड पट्टी वाला मारे तब भी वह यही बोलता था और ब्लू पट्टी वाले मारा, तब भी वे महानुभाव यही बोलते थे। उससे रहा नहीं गया तो पूछ बैठा – भाईसाहब! आखिर आप हो किसकी तरफ? कई बार पूछने पर उन्होंने बड़ी ईमानदारी से बता ही दिया – मैं दांतों का डॉक्टर हूं।
ब्रोकरों का यही हाल है। आप जितना ज्यादा खरीदो-बेचोगे, उन्हें उतना ज्यादा कमीशन मिलेगा। यह अलग बात है कि रिटेल निवेशक बार-बार घाटा खाकर इतना मायूस हो चुका है कि अब शेयर बाजार में घुसने के बजाय दूर से तमाशा देख रहा है। इसके चलते तमाम ब्रोकरों के शटर डाउन होते जा रहे हैं। फिर भी उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि धंधा बढ़ाने के लिए लोगों को सच बताना जरूरी है। सही तरीके से बाजार के ऊंच-नीच का ज्ञान कराना जरूरी है। लेकिन दुर्भाग्य से शेयर ब्रोकर भी आम लोगों की तरह बाजार से चुटकी बजाकर फटाफट नोट बनाने के चक्कर में लगे हैं।
बात बड़ी सीधी-सी है कि ब्रोकर की स्थिति रेस्टोरेंट में खाना परोसने वाले वेटर जैसी है, खाना बनानेवाले रसोइया जैसी नहीं। ज्यादा से ज्यादा उसे हम केमिस्ट मान सकते हैं, डॉक्टर नहीं। आप अपना इलाज केमिस्ट से तो करवाते नहीं? फिर ब्रोकर से निवेश के बारे में सलाह क्यों लेते हैं? और लेते भी हैं तो उसे मान क्यों लेते हैं? घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या! ब्रोकर या ब्रोकरेज फर्म से जुड़े एनालिस्ट का आपके हित से कोई लेना-देना नहीं होता। आप नोट बनाएं या गवाएं, उसे अपना कमीशन मिल जाता है। वैसे भी, आप शेयरों में किसी भी तरह की ट्रेडिंग ब्रोकर के बगैर कर ही नहीं सकते। इसलिए जितना आप सौदा करोगे, उसका उतना ही फायदा होगा।
बराबर ऐसी भी रिपोर्टें आती रही है कि एक ही ब्रोकरेज फर्म एक ही समय संस्थागत निवेशकों को कोई स्टॉक बेचने की सलाह देती है और आम निवेशकों को खरीदने की। इसलिए उनकी निष्पक्षता की बात सोचना ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा है। अगर ब्रोकर फर्मों के एनालिस्ट स्टॉक्स पर रिसर्च रिपोर्ट करते हैं तो उसका प्रमुख मसकद निवेशकों के बीच साख जमाना होता है ताकि वे अपने मालिकों का ज्यादा फायदा करा सके।
इसलिए शेयर बाजार में निवेश के लिए स्वतंत्र सलाहकारों का होना बेहद जरूरी है। सबसे अच्छा तरीका व दीर्घकालिक समाधान तो यह है कि हम अपने अध्ययन से खुद ही निवेश का विज्ञान समझ लें और अभ्यास के इसकी कला में पारंगत हो जाएं। यह काम कोई मुश्किल नहीं है। अंग्रेजी में इसके बारे में सैकड़ों अच्छी-अच्छी किताबें हैं। कई अच्छी वेबसाइट्स भी हैं। हिंदी में आपके अर्थकाम ने ठीकठाक शुरुआत कर दी है। धीरे-धीरे यह सिलसिला एक दिन कारवां बन जाएगा।
इस दौरान हमें सुननी सबकी चाहिए। जिस ब्रोकर फर्म में हमारा खाता है, पूछ-पूछ कर उसका खून पी जाना चाहिए। उससे मुफ्त की रिसर्च रिपोर्टें मांगनी चाहिए। उसे मनोयोग से पढ़ना भी चाहिए। लेकिन केवल उसी के आधार पर निवेश का फैसला नहीं करना चाहिए। हां, एक बात मुझे नहीं समझ में आती कि ब्रोकर ज्यादातर खरीदने की ही सलाह क्यों देते हैं? बेचने कि सलाह उनकी गिनी-चुनी ही होती है। जब खरीदने-बेचने, दोनों पर उन्हें कमीशन मिलता है, तो खरीदने की सलाहों पर ही जोर क्यों?
रीयल एस्टेट कंपनी डीएलएफ की शेयर इस साल 3 जनवरी को 298.20 रुपए पर था। शुक्रवार, 9 सितंबर तक अब तक 33.26 फीसदी गिरकर 199 रुपए पर आ चुका है, जबकि इस दौरान सेंसेक्स 18.14 फीसदी गिरा है। इसके बावजूद दो हफ्ते पहले डीएलएफ को खरीदने की 18 कॉल्स आईं, जबकि केवल 8 एनालिस्टों ने उसे बेचने को कहा। जेपी एसोसिएट्स गिरता ही जा रहा है। फिर भी उसे खरीदने की 24 कॉल्स आईं और बेचने की केवल एक। कहीं तो ऐसा तो नहीं कि ब्रोकरों व एनालिस्टों को खरीद की सलाह के लिए कंपनियों के भी कुछ माल-मत्ता मिलता है? कंपनियां मीडिया वालों की जैसी ‘सेवा’ करती हैं, उसमें इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए इस फाइनेंस की इस निर्दयी दुनिया में ज़रा-सा नहीं, पूरा संभलकर चलने की जरूरत है।
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