गफलत नहीं, दो माह झेलें झंझावात

नौकरियां बढ़ाने के लिए ओबामा का 447 अरब डॉलर का पैकेज दुनिया के बाजारों में चहक नहीं ला सका क्योंकि समयसिद्ध नियम है कि जब भी कोई अच्छी खबर आती है, निवेशक हमेशा बेचते हैं। यह भी कि यह पैकेज रातोंरात असर नहीं दिखा सकता। लेकिन इसने इतना तो साबित कर दिया कि व्हाइट हाउस मानता है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है। इन हालात में दोतरफा बिकवाली होनी ही थी। जिन्होंने सुधार की उम्मीद में खरीद कर रखी है, वे स्टॉप लॉस से बचने के लिए बेचेंगे। दूसरी तरफ जो लोग ऐसे फैसलों से पहले शॉर्ट सौदे करते हैं, वे भी बाद में बाजार पर चोट करने के लिए आक्रामक बिकवाली करते हैं।

भारत इस मायने में भिन्न नहीं है। बल्कि यहां तो कहीं ज्यादा खतरनाक उतार-चढ़ाव होते हैं। वैश्विक निवेशक भारत के बारे में दोहरे मानक अपनाते हैं। वे जानते हैं कि भारतीय बाजार वोलैटिलिटी में दुनिया में नंबर एक पर पहुंच चुका है और यहां वे ज्यादा आक्रामक तरीके से चोट करके अपने दूरगामी निवेश के लिए शानदार मौका पैदा कर सकते हैं क्योंकि भारत इकलौता बाजार है जो उन्हें छिपने और सिर छुपाने की जगह दे रहा है।

हमारा दुर्भाग्य है कि विदेशी पूंजी का सरंजाम देख रहे हमारे नियामक, रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय देश के घरेलू निवेशकों के बजाय वैश्विक निवेशकों के स्वागत व उनकी सुरक्षा को लेकर ज्यादा चिंतित रहते हैं। हम स्टॉक डेरिवेटिव सौदों में फिजिकल सेटलमेंट के बारे में काफी समय से लिखते रहे हैं। हमने जब इस बाबत हाल ही में रिजर्व बैंक के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों से बात की तो उन्होंने बताया कि फिजिकल सेटलमेंट की इजाजत एफआईआई की जरूरत व मांग के चलते नहीं दी जा रही है। किसी कंपनी या उद्योग में एफआईआई निवेश जब ऊपरी सीमा तक पहुंच जाता है तब वे फ्यूचर्स में निवेश करके बचे रहते हैं। फिजिकल सेटलमेंट हो गया तो डिलीवरी लेनी पड़ेगी और सेटलमेंट के दौरान उनका निवेश निर्धारित सीमा से बढ़ जाएगा।

मुझे यह तर्क एकदम बेतुका लगता है। अगर कैश सेगमेंट में एफआईआई एक खास सीमा से ज्यादा निवेश नहीं कर सकते तो यह बंदिश फ्यूचर्स पर भी लागू होनी चाहिए। वैसे भी, स्टॉक्स में फिजिकल सेटलमेंट तो बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में लागू हो चुका है। इसलिए कोई चाहे तो वहां डिलीवरी लेने या देने की मांग कर सकता है। अधिकारीगण एफआईआई के चलते डेरिवेटिव सौदों में लिक्विडिटी या तरलता की बात करते हैं। लेकिन वे यह बात भूल जाते हैं कि इस समय जो एचएनआई (हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल) कैश सेगमेंट में ज्यादा खरीद-फरोख्त करते हैं, वे फिजिकल सेटलमेंट लागू जाने पर डेरिवेटिव सेगमेंट में उसकी पांच गुना लिक्विडिटी पैदा करेंगे। इससे आर्बिट्राज का धंधा चमकेगा और एसएलबी (स्टॉक लेंडिंग एंड बॉरोइंग) के मरे पड़े काम में जान आ जाएगी। समझ में नहीं आता कि इन सारी खूबियों के बावजूद भारत सरकार भारतीय निवेशकों के बजाय विदेशी निवेशकों (एफआईआई) को क्यों तरजीह दिए जा रही है।

ध्यान देने की बात यह है कि इन्हीं फिरंगी निवेशकों ने सरकारी कंपनियों के स्टॉक्स को ऐसा दबा रखा है कि आईपीओ या एफपीओ में 5 फीसदी डिस्काउंट पर शेयर मिलने के बावजूद आम निवेशको को इनमें अच्छा रिटर्न नहीं मिल पाया है। अकेला कोल इंडिया इसका अपवाद है। इसमें भी सरकार अगर एफपीओ लाने की घोषणा कर दे तब देखिए एफआईआई इसे पीटकर कहां पहुंचा देते हैं?

हिंदुस्तान कॉपर में साल भर पहले जब सरकार ने अपनी 10 फीसदी इक्विटी बेचने की मंशा जाहिर की थी, तब इसका बाजार पूंजीकरण 45,000 करोड़ रुपए था। अब घटकर 22,000 करोड़ रुपए पर आ गया है और जब तक एफपीओ के आने का समय आएगा, तब तक यह 12,000 से 15,000 करोड़ रुपए पर पहुंच चुका होगा। भारत सरकार को हिंदुस्तान कॉपर के 10 फीसदी बेचने पर ज्यादा से ज्यादा 1500 करोड़ रुपए ही मिल पाएंगे। जिस कंपनी में सरकार की मौजूदा इक्विटी हिस्सेदारी 99.59 फीसदी हो, उसका शेयर बिना किसी खेल के इतना नहीं गिर सकता था।

अगर 10 फीसदी इक्विटी बेचने के बजाय भारत सरकार पूरी कंपनी, मान लीजिए 25,000 करोड़ रुपए में बेचने की पेशकश करें तो बहुत से भारतीय कॉरपोरेट समूह इसे लपककर खरीद लेंगे। सरकार जब बाल्को, मारुति, व वीएसएनएल जैसी कंपनियों को बेच चुकी है तो नटनी को बांस पर चढ़ने में क्यों शर्म आ रही है? वह क्यों नहीं हिंदुस्तान कॉपर को पूरा बेच डालती? वह क्यों चाहती है कि एफपीओ में 10 फीसदी इक्विटी बेचने की घोषणा हो और उसका मूल्यांकन 90 फीसदी नीचे गिरा दिया जाए? एनएमडीसी और शिपिंग कॉरपोरेशन भी इसके आदर्श उदाहरण हैं। आगे यही खेल ओएनजीसी और भेल के साथ भी दोहराया जाएगा। वैसे, सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक वित्त मंत्रालय इस खेल को बंद करने में जुट गया है क्योंकि उसे लगता है कि अब भी नहीं चेते तो यूएस-64 जैसा किस्सा दोहराया जा सकता है।

बाजार के मौजूदा हाल की बात करें तो यह कहना वाकई मूर्खता होगी कि सबसे बुरा दौर बीत चुका है। लेहमान संकट का दौर याद कीजिए। गिरावट का क्रम जनवरी 2008 में शुरू हुआ। लेहमान संकट अक्टूबर 2008 में हुआ और बाजार ने मार्च 2009 में तलहटी पकड़ी। इस तरह बाजार के जमने से पहले पांच महीने तक भारी उथल-पुथल मची रही। इस बार अमेरिका की रेटिंग अगस्त 2011 में घटाई गई। इसलिए मुझे लगता है कि बाजार को थिर होने से पहले कम से कम तीन महीने का झंझावात झेलना पड़ेगा। मंदड़ियों का हमला अभी अगले दो महीनों तक जारी रह सकता है। इसी दरम्यान तय हो जाएगा कि निफ्टी 4730 का बॉटम पकड़ेगा या एक बार फिर 4605 तक चला जाएगा।

इन सारी बातों की एक बात मुझे आखिर में कहनी है कि इस बार की घनघोर निराशा के बाद शेयर बाजार में तेजी का ऐसा दौर शुरू होगा जो कई सालों तक चलेगा। इसके शुरू होने के ठीक पहले सोने और चांदी की चमक मिट जाएगी। फिलहाल तमाम ब्रोकिंग हाउस इस समय इन जिसों की ब्रोकरेज कमाई पर जिंदा है जो इक्विटी पर होनेवाली ब्रोकरेज आय से काफी ज्यादा है। सोने-चांदी में तेजी का माहौल इसलिए है क्योंकि तकरीबन सारा भारत, दिसावरी निवेशक तक सोने व चांदी में बढ़ने की उम्मीद के साथ खरीद किए पड़ा है। अगर आप यह बाजी जीतना चाहते हैं तो अगले तीन महीने तक हर बढ़त पर सोने व चांदी से बेचकर निकलते रहे और हर गिरावट पर इक्विटी बाजार में निवेश करते रहें। बाकी, बाद में मत कहिएगा कि हमने बताया नहीं।

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