केंद्र की यूपीए सरकार के आला मंत्री किस कदर झूठ बोलते और वादाखिलाफी करते हैं, यह पिछले दिनों अण्णा हज़ारे के अनशन के दौरान कई बार उजागर हुआ। लेकिन कोई अंदाजा नहीं लगा सकता है कि वे देश के साथ कितने बड़े-बड़े झूठ बोलते रहे हैं। इनमें से एक झूठ का खुलासा हाल में ही किया है देश में किसानों को ऋण देने की निगरानी व देखरेख करनेवाले शीर्ष बैंक नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक) के नए चेयरमैन प्रकाश बख्शी ने।
उन्होंने बताया कि हमारे बैंक कृषि ऋणों का एक चौथाई हिस्सा उस समय किसानों को देने का दावा करते हैं, जबकि कोई खेती-किसानी होती ही नहीं। यही नहीं, सरकार किसानों को 7 फीसदी ब्याज पर कर्ज दिलाने का दावा करती है। लेकिन हकीकत में किसानों को कर्ज पर 14 फीसदी ब्याज देना पड़ता है।
गौरतलब है कि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी आए दिन अपनी सरकार की पीठ थपथपाते रहते हैं कि किसानों को लक्ष्य के कहीं ज्यादा ऋण मुहैया कराया जा रहा है। शुक्रवार को कृषि राज्यमंत्री हरीश रावत ने भी राज्यसभा में बताया कि वित्त वर्ष 2010-11 में किसानों को 4.46 लाख करोड़ रुपए का ऋण दिया गया है, जबकि बजट लक्ष्य 3.75 लाख करोड़ रुपए का ही था। मंत्री महोदय ने नाबार्ड के आंकड़ों का उल्लेख करते हुए बताया कि 4.46 लाख करोड़ के ऋण का 36.53 फीसदी हिस्सा यानी 1.63 लाख करोड़ रुपए का ऋण लघु व सीमांत किसानों को मिला है।
लेकिन खुद नाबार्ड ने चेयरमैन प्रकाश बख्शी ने सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठा दिया है। उन्होंने बुधवार को उद्योग संगठन फिक्की और इंडियन बैंक्स एसोसिएशन द्वारा मुंबई में आयोजित एक सम्मेलन में खुलासा किया कि जून से सितंबर के दौरान खरीफ के पीक सीजन कृषि ऋण का केवल 29 फीसदी दिया जाता है, जबकि 24 फीसदी बैंक ऋण फरवरी व मार्च में दिए जाते हैं। समस्या यह है कि फरवरी व मार्च में किसान खाली रहते हैं। इन दो महीनों में कोई फसल नहीं बोई जाती। दूसरी तरफ खरीफ की बोवाई के मुख्य महीने जून से सितंबर के होते हैं। वहीं रबी की बोवाई नवंबर, दिसंबर, जनवरी में होती है।
बता दें कि कृषि क्षेत्र को दिए जानेवाले सारे ऋण नाबार्ड की जानकारी में ही दिए जाते हैं। वह इस मायने में देश का शीर्ष बैंक है। अब इस शीर्ष बैंक के भी शीर्ष अधिकारी ने सवाल उठा दिया है कि बैंक जो ऋण कृषि क्षेत्र को दे रहे हैं, वह आखिर जा कहां रहा है? खासकर फरवरी-मार्च में दिया गया ऋण कहां पहुंच रहा है और इसकी हकीकत क्या है?
नाबार्ड प्रमुख का कहना है कि देश के करीब 12 करोड़ किसान परिवारों में से मात्र 4-5 करोड़ किसान परिवार ही बैंक व वित्तीय संस्थाओं से ऋण हासिल कर रहे है। इसका मतलब यह हुआ कि या तो बाकी किसानों को ऋण नहीं मिल पा रहा या उन्हें इसकी जरूरत नहीं है। नोट करें, नाबार्ड प्रमुख देश के केवल एक तिहाई किसानों तक बैंक ऋण पहुंचने की बात कर रहे हैं, वहीं उत्तराखंड के पुराने कांग्रेसी नेता और केंद्रीय राज्य मंत्री हरीश रावत 36 फीसदी से ज्यादा ऋण छोटे किसानों तक पहुंचने का दावा कर रहे हैं। इनमें से कौन कितना सही है, कौन जाने?
केंद्र सरकार किसानों को ऋण पर ब्याज में छूट भी देती है। आमतौर पर किसानों को 7 फीसदी की सालाना ब्याज दर पर ऋण मिलना चाहिए। इस बार के बजट में वित्त मंत्री ने यह भी प्रावधान कर दिया है कि जो किसान समय पर अपने ऋणों का भुगतान करेंगे, उन्हें ब्याज दर में 3 फीसदी की छूट ऊपर से मिलेगी। यानी ऐसे किसानों को मात्र 4 फीसदी सालाना की ब्याज दर पर ऋण मिल जाएगा। लेकिन जमीनी हकीकत एकदम उलट है। खुद नाबार्ड प्रमुख ने एक सर्वे का हवाला देते हुए बताया कि बैंक ऐसे-ऐसे खर्च जोड़ देते हैं कि किसानों के लिए ऋण की वास्तविक ब्याज दर 14 फीसदी हो जाती है। बैंक एक तरफ किसानों को सस्ता ऋण देने के एवज में सरकार से ब्याज का अंतर गड़प रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ किसानों से कागज पर 7 फीसदी ही ब्याज लिया जाता है, लेकिन कम ब्याज लेने का खर्च बैंक दूसरे तरीकों से किसानों से वसूल ले रहे हैं।
इस बारे में नेशनल एग्रीकल्चरल को-ऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के निदेशक और भारत कृषक समाज के अध्यक्ष अजयवीर जाखड़ का कहना है कि सरकार की ब्याज दर रियायत का फायदा किसानों को नहीं, बैंकों को मिल रहा है। उन्होंने बताया कि बैंक जितना कृषि ऋण दिल्ली और चंडीगढ़ में देते हैं, वह आसपास के पांच अन्य राज्यों को मिलाकर दिए गए कुल ऋण से ज्यादा है। उनका कहना है कि बैंकों के ऋण का आंकड़ा महज धोखा है, इनके पीछे की असलियत कुछ और है।
चौंकाने की बात यह है कि सरकार उस कृषि क्षेत्र के साथ यह ‘धोखा’ कर रही है, जिसके लिए 12वीं पंचवर्षीय योजना में कम से कम 4 फीसदी की विकास दर का लक्ष्य रखा गया है और जिस क्षेत्र के ऊपर खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ने से रोकने से लेकर औद्योगिक क्षेत्र को व्यापक बाजार उपलब्ध कराने का दारोमदार है।