इस समय यूलिप जैसे नए-नए बीमा उत्पादों में जिस-जिस तरह के शुल्क होते हैं, जैसी गणनाएं होती हैं, जिस तरह का बेनिफिट चार्ट पॉलिसी बेचने से पहले ग्राहक को समझाना प़ड़ता है, उससे ये इतने जटिल हो गए हैं कि गणित के अच्छे-खासे ग्रेजुएट के लिए भी इन्हें बेच पाना मुश्किल है। लेकिन इस समय देश में इन्हें हाईस्कूल से इंटर पास लोग तक बेच सकते हैं और बेच रहे हैं। कहने को बीमा एजेंट बनने के लिए इन्हें इंश्योरेंस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की परीक्षा पास करनी होती है। साथ ही 100 से 150 घंटे की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग लेनी जरूरी है। लेकिन परीक्षा पास करने से लेकर ट्रेनिंग पूरा करने का असली सर्टीफिकेट 10-15 हजार रुपए खर्च करने पर आसानी से मिल जाता है।
बिहार में जन्मे और मुंबई में जीवन बीमा निगम से साथ एजेंट के बतौर काम करनेवाले एक सज्जन अपना नाम न जाहिर करते हुए बताते हैं कि पहले यह परीक्षा शहरों-कस्बों के अंगड़-खंगड़ स्कूलों में रख दी जाती थी। जहां आप पहुंचें या न पहुंचे, आपके नाम पर कोई दूसरा परीक्षा दे सकता था। कागज पर एक सेंटर में 1100-1200 लोग परीक्षार्थी होते थे, लेकिन हकीकत में इनकी संख्या दो-ढाई सौ से ज्यादा नहीं रहती थी। इंदौर के एक अन्य महिला एजेंट ने बताया कि कैसे उन्होंने प्रैक्टिकल ट्रेनिंग का सर्टीफिकेट 11,000 रुपए देकर दो दिन में हासिल कर लिया था।
लेकिन यह सब बातें उजागर होने के बाद बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए ने एजेंटों के लिए अक्टूबर 2009 के बाद से ऑनलाइन परीक्षा अनिवार्य कर दी है। इससे संख्या की घटबढ़ का मामला तो हल हो गया। लेकिन किसी की जगह किसी और के बैठने की समस्या नहीं सुलझी है। साथ ही व्यवहार में होता यह है कि परीक्षा कंडक्ट करनेवाला ही अपने ‘कैंडिडेट’ को सारे उत्तर टिक करवा देता है। परीक्षा ऑब्जेक्टिव टाइप होती है जिसमें ए, बी, सी, डी में किसी पर क्लिक करना होता है तो सब कुछ बड़े मजे में हो जाता है।
बता दें कि एजेंट की परीक्षा का ऑनलाइन सेट तैयार करने में नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के पूर्ण स्वामित्व वाली सब्सिडियरी NSEiT की मदद ली जा रही है। मुंबई का इंश्योरेंस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (आईआईआई) अभी तक देश भर के 325 केंद्रों में यह परीक्षा संचालित करता रहा है। ऑनलाइन होने के बाद यह परीक्षा अब देश के 100 केंद्रों में संचालित की जा रही है। व्यक्तिगत बीमा एजेंटों की परीक्षा में हर साल औसतन 7 से 10 लाख लोग बैठते हैं।
बीमा उद्योग से जुड़े एक बड़े अधिकारी का कहना है कि बीमा एंजेटों की भ्रर्ती का यह हाल पूरे उद्योग के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। जिस बीमा को हम ‘पुल’ नहीं ‘पुश’ उद्योग कहते हैं, जिस बीमा के बारे में कहा जाता है कि इसे खरीदा नहीं बेचा जाता है, उसमें ग्राहकों को बेचनेवाले एजेंट ऐसे होंगे तो मिस-सेलिंग होनी ही है। उनका कहना था कि ऐसा नहीं कि आईआरडीए के लोगों को यह पता नहीं है। लेकिन पॉलिसियां मजे में बिक जा रही हैं तो वे, सब चलता है, की सोच के साथ आंखों पर जान-बूझकर पट्टी बांधे हुए हैं। शेयर ब्रोकिंग जैसे कारोबार में ऐसा चल सकता है क्योंकि वहां रोज के सौदे होते हैं, स्क्रीन पर सारे रेट आते हैं, पारदर्शिता है और ऊपर से भारी कम्पटीशन भी है। लेकिन बीमा में ऐसी कोई पारदर्शिता नहीं है। ऊपर से एक बार किसी एजेंट ने पॉलिसी बेच दी तो उसे दोबारा पॉलिसीधारक को मुंह दिखाने की जरूरत नहीं होती। जब तक पॉलिसी चलती है, उसका बंधा-बंधाया कमीशन आ रहता है।
इस बीच आईआरडीए की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक देश में व्यक्तिगत बीमा एजेंटों की संख्या बढ़ती जा रही है। इनकी संख्या मार्च 2008 से मार्च 2009 के बीच 25.20 लाख से 16.5 फीसदी बढ़कर 29.37 लाख हो गई है। इनमें से अकेले एलआईसी के पास 13.45 लाख एजेंट हैं जबकि बाकी 22 निजी कंपनियों के पास कुल मिलाकर 15.93 लाख एजेंट हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि हर साल भारी मात्रा में इन बीमा कंपनियों को निकाला जाता है।
वित्त वर्ष 2008-09 में जहां 12.89 लाख नए एजेंटों की भर्ती की गई, वहीं 8.72 लाख एजेंटों की सेवाएं समाप्त कर दी गईं। इस मामले में निजी बीमा कंपनियों में हालत ज्यादा खराब है, जहां 9.43 लाख नए एजेंट भर्ती किए गए तो 6.77 लाख पुराने एजेंट निकाले गए। एलआईसी में नए एजेंटों की संख्या 3.46 लाख और निकाले गए एजेंटों की संख्या 1.95 लाख रही है। इससे एक तो बीमा कंपनियों को नुकसान होता है क्योंकि एजेंटों की ट्रेनिंग वगैरह पर किया गया उनका सारा खर्च बरबाद जाता है। लेकिन दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि जिन लोगों को उन्होंने पॉलिसियां बेची होती हैं, वे अधर में लटक जाते हैं। तीसरी बात, इससे बीमा एजेंटों के प्रति पॉलिसीधारकों का भरोसा उठ जाता है।