हर साल के बजट में सरकार कृषि ऋण का लक्ष्य बढ़ाती जा रही है और पिछले कई सालों से वास्तव में बांटा गया कृषि ऋण घोषित लक्ष्य से ज्यादा रहा है। इस साल के बजट में भी वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने चालू वित्त वर्ष 2012-13 के लिए कृषि ऋण का लक्ष्य बढ़ाकर 5.75 लाख करोड़ रुपए कर दिया है। बीते वित्त वर्ष 2011-12 में यह लक्ष्य 4.75 लाख करोड़ रुपए का था जिसमें से दिसंबर 2011 तक 71.73 फीसदी (3,40,716 करोड़ रुपए) ऋण बांटे जा चुके थे। पिछले आठ सालों से कृषि ऋण के बढ़ने और बंटने का यही सिलसिला चल रहा है।
लेकिन ज्यादा ऋण मिलने के बावजूद इन सालों के दौरान कृषि और किसानों की हालत बद से बदलर होती जा रही है। इसलिए यह उलटबांसी एक बार फिर जानकारों को खटकने लगी है। उनका आरोप है कि बैंक कृषि क्षेत्र को हकीकत में ऋण न देकर महज आंकड़ों की बाजीगरी कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि बीते साल अगस्त में नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण बैंक) के चेयरमैन प्रकाश बख्शी ने इस हकीकत की तरफ इशारा किया था।
खेती-किसानी से ताल्लुक रखनेवाला कोई भी शख्स बता सकता है कि किसानों को नई फसल के लिए सबसे ज्यादा ऋण की जरूरत अप्रैल व मई में पड़ती है क्योंकि मानसून आने से पहले उन्हें बीज से लेकर खाद तक का इंतजाम करना पड़ता है। इसलिए कायदे से वित्त वर्ष के इन पहले दो महीनों में सबसे ज्यादा कृषि ऋण बांटे जाने चाहिए। लेकिन वास्तविक आंकड़े इससे उल्टी तस्वीर पेश करते हैं।
नाबार्ड द्वारा कराए गए एक ताजा अध्ययन के मुताबिक, अप्रैल 2009 से जनवरी 2010 के बीच कृषि क्षेत्र पर बकाया ऋण तीन लाख करोड़ रुपए का था। लेकिन मार्च 2010 तक यह सीधे-सीधे पांच लाख करोड़ रुपए बढ़कर आठ लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया। फिर अगले ही महीने अप्रैल में यह फिर से घटकर वापस तीन लाख करोड़ रुपए पर आ गया। नाबार्ड के चेयरमैन प्रकाश बख्शी कहते हैं, “हमारी अपेक्षा के मुताबिक किसानों को मानसून की फसल, यानी खरीफ सीजन के दौरान 50-60 फीसदी ऋण लेना चाहिए। लेकिन न तो वितरित ऋण और न ही उनकी अदायगी के साथ फसलों के सामान्य सीजन का कोई वास्ता नज़र आता है।”
रिजर्व बैंक के मुताबिक भी कृषि क्षेत्र के ऋण में बड़ा झोल है। मसलन, साल 2000 से 2010 के बीच कृषि ऋण की रकम 755 फीसदी बढ़कर 3.90 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गई है। लेकिन इसी दौरान कृषि की उत्पादकता मात्र 18 फीसदी बढ़ी है। यही नहीं, बीज, खाद व ट्रैक्टरों की बिक्री भी इसी विरोधाभास को दर्शाती है। रिजर्व बैंक की पूर्व डिप्टी गवर्नर ऊषा थोराट कहती हैं कि ऋण में हर 1.3-1.5 फीसदी की वृद्धि पर जीडीजी (सकल घरेलू उत्पादन) एक फीसदी बढ़ जाता है। इस हिसाब से कृषि ऋण में तीन गुना वृद्धि से कृषि उत्पादन दोगुना हो जाना चाहिए। लेकिन असल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है।
बता दें कि रिजर्व बैंक के प्रावधानों के मुताबिक बैंकों को हर साल अपने कुल ऋण का 18 फीसदी हिस्सा कृषि क्षेत्र को देना जरूरी है। यह लक्ष्य न पूरा कर पाने पर बैंकों को बाकी हिस्सा ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर विकास फंड (आरआईडीएफ) में देना पड़ता है जिस पर उन्हें मात्र 4 से 5 फीसदी सालाना ब्याज मिलता है। इससे बचने के लिए बैंक कृषि क्षेत्र के ऋण का लक्ष्य किसी तरह जुगाड़ से पूरा कर लेते हैं। वे किसानों को सीधे ऋण न देकर कृषि साधन बनानेवाली कंपनियों या किसानों को ऋण देनेवाली एनबीएफसी (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों) को कर्ज देते हैं। योजना आयोग की एक सलाहकार समिति के मुताबिक साल 2000 में जहां बैंकों द्वारा दिए गए इस तरह के परोक्ष ऋण का हिस्सा कुल कृषि ऋण में 16 फीसदी था, वहीं 2010 में यह 24 फीसदी हो गया है।
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, बैंक ज्यादातर कृषि ऋण बड़े किसानों को देते हैं क्योंकि उनमें ज्यादा जोखिम नहीं होता। ऐसे किसान भी बैंकों से ऋण से लेकर उसे फिर कहीं उधार पर चढ़ा देते हैं। बैंकों का ऋण सरकारी नियम के मुताबिक उन्हें 7 फीसदी ब्याज पर मिलता है। उस पर भी अगर पुराने ऋण उन्होंने समय पर लौटाए हों तो उनसे इससे तीन फीसदी कम, यानी 4 फीसदी ब्याज लिया जाता है। इसलिए बैंकों के ऋण को वे आराम से 14-15 फीसदी ब्याज पर चढ़ा देते हैं। दूसरी तरफ छोटे किसानों को बैंक ऋण मिल ही नहीं पाता। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश के 83 फीसदी किसानों के पास 2.5 हेक्टेयर से कम जमीन है और इनके पास देश की कुल 43.5 फीसदी कृषि भूमि है। लेकिन इन्हें बैंकों के ऋण का केवल 24 फीसदी हिस्सा मिल पाता है। इससे अलावा, जानकारों के मुताबिक बैंक वित्त वर्ष के आखिरी दो महीनों में कृषि ऋण के लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपने खातों में जमकर कलाकारी करते हैं। (जानकारी का स्रोत: इकनॉमिक टाइम्स)