कभी आपने सोचा है कि ज़रा-सा होश संभालते ही हम धन के चक्कर में घनचक्कर क्यों बन जाते हैं? और, यह धन आखिरकार आता कहां से है, इसका स्रोत, इसका उत्स क्या है? हम ट्रेडिंग भी तो इसीलिए करते हैं कि खटाखट धन आ जाए! निवेश भी इसीलिए करते हैं कि हमारा जितना धन है, वह बराबर बढ़ता रहे। आइए, आज हम धन के चक्कर में घनचक्कर बनने और धन-चक्र को समझने की कोशिश करते हैं।
पहले समझें कि धन का स्रोत क्या है? हर शब्द के पीछे एक परंपरा होती है। धन का सीधा है मतलब है जोड़ना। जो जुड़ता है वह धन है। जो भी इस दुनिया में कोई भी दृश्य-अदृश्य वस्तु जोड़ना है, वह धन पैदा करता है। इसे अर्थशास्त्र की भाषा में मूल्य सृजन या वैल्यू क्रिएशन कहते हैं। हर सृजन में एक मूल्य छिपा है। लेकिन समाज में वह तब उद्घाटित होता है जब औरों के लिए उसकी उपयोगिता होती है। उपभोगिता के हिसाब से किसी भी दृश्य-अदृश्य वस्तु का मूल्य तय होता है। फिर कीमत/भाव उसकी मांग और आपूर्ति से संतुलन से तय होती है।
किसी भी देश में जो भी नया मूल्य जुड़ता है और समाज में उपयोगिता के अनुरूप उसकी जो भी कीमतें होती हैं, उसके हिसाब से उस देश का केंद्रीय बैंक नोट छापकर सिस्टम में डाल देता है। पहले नोटों की मात्रा के लिए सोने की मात्र का मानक था। लेकिन करीब चालीस साल पहले यह मानक खत्म किया जा चुका है। अब कोई भी केंद्रीय बैंक अपने देश में मांग के अनुरूप जितना चाहे, उतने नोट छापकर सिस्टम में डाल सकता है। अपने यहां यह काम भारतीय रिजर्व बैंक रुपयों के रूप में करता है।
लेकिन हाथ से छुई जा सकनेवाली मुद्रा भी धीरे-धीरे अमूर्त होती जा रही है। विदेश में लोग कैश का कम और क्रेडिट कार्ड वगैरह का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। इस तरह प्लास्टिक मनी का चलन बढ़ रहा है। अभी जिस तरह बिटक्वॉयन की नई वर्चुअल मुद्रा चली है, उससे साफ इशारा मिलता है कि भविष्य में लेन-देन की साधन मुद्रा कैसे सगुण से निर्गुण होने जा रही है।
आखिर कौन करता है मूल्य-सृजन। किसान एक बीज से हज़ारों नए बीज करता है। फैक्टरियों में कच्चा माल नए उत्पाद की शक्ल लेता है तो श्रम और पूंजी (संघनित श्रम) से अर्थव्यवस्था में नया मूल्य जुड़ता है। कंपनी वो माल हमें बेच पाती है तो वह उन्नति करती रहती है, अन्यथा बंद हो जाती है, मूल्य का विनाश हो जाता है। हम अपने उपयोग की चीजें हासिल कर सकें, इसके लिए हम विनिमय मूल्य के रूप में धन को हासिल करना चाहते हैं। अगर हमारे उपयोग की कोई चीज़ सहज उपलब्ध हो, जैसे वायुमंडल की ऑक्सीजन तो उसके लिए हमें किसी विनिमय मूल्य या धन की जरूरत नहीं होती। सोने की उपयोगिता और मांग ज्यादा है तो उसके दाम चढ़े हुए हैं। जिस दिन उपयोगिता के साथ-साथ उसकी मांग घट जाएगी तो उसका कोई पुछत्तर नहीं होगा और वह औने-पौने दामों में मिलने लगेगा।
कलाकार भी मूल्य-सृजन करता है और लेखक भी। इसीलिए बनारस के अमरीश त्रिपाठी तीन किताबें लिखकर करोड़पति बन जाते हैं और बिहार के खगौल में जन्मे सुबोध गुप्ता के शिल्प करोड़ों में बिकने लगते हैं। व्यापारी भी मूल्य सृजन करता है क्योंकि वह हमारे उपयोग व उपभोग की चीज़ें हम तक पहुंचाता है। मूल्य-सृजन कृषि, उद्योग व व्यापार और कला के साथ-साथ शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्र में भी होता है। विद्यालय व विश्वविद्यालय भी कच्ची प्रतिभाओं को निखारकर समाज के लिए उपयोगी बनाते हैं, इसलिए वे भी मूल्य-सृजन करते हैं। हम अगर धन को पकड़ना चाहते हैं तो उसे मूल्य-सृजन के स्रोत पर पकड़ना होगा।
अब जीवन चक्र के साथ धन के चक्र को पकड़ा जाए। जब हम बच्चे होते हैं तो हमें धन की फिक्र नहीं होती क्योंकि हमारे लिए इसकी फिक्र मां-बाप करते हैं। जैसे ही हम पढ़ाई-लिखाने पूरा करने के बाद कोई काम-धंधा पकड़ते हैं, वैसे ही हमारे लिए धन का चक्र शुरू हो जाता है। हम ज्यादा से ज्यादा कमाने के चक्कर में पड़ जाते हैं। यहां से सही मायनों में व्यक्ति के लिए धन-चक्र की पहली अवस्था शुरू होती है।
दूसरी अवस्था मे हम तब प्रवेश करते हैं जब हमारे ऊपर सामाजिक जिम्मेदारियां आ जाती हैं। शादी के बाद बीवी-बच्चे और बूढ़े मां-बाप की देखभाल। यहां हमें कमाने के साथ भावी जरूरतों के लिए बचाना पड़ता है। लेकिन सबसे पहले यह आशंका कि अगर किसी वजह से हम न रहे, तो हमारे ऊपर निर्भर परिवार का क्या होगा। यहां पर आती है जीवन बीमा की भूमिका। नियम है कि हम साल भर में जितना कमाते हैं, उसका कम से कम पांच से दस गुना का बीमा कवर ले लें ताकि हमारे न रहने पर हमारा परिवार कुछ साल तक आसानी से निर्वाह कर सके।
साथ ही इसका भी इंतज़ाम करना पड़ता है कि अचानक हारी-बीमारी या दुर्घटना में हमारी जेब खोखली न हो जाए। इसके लिए स्वास्थ्य और साधारण बीमा का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन अब भी हम निश्चिंत नहीं हो सकते क्योंकि भविष्य में बच्चों की पढ़ाई के लिए एकमुश्त धन कहां से आएगा, उनकी शादियों के लिए लाखों-लाख कहां से आएंगे। इसके लिए हम बैंकों में धन जमा करते हैं, एफडी में लगाते हैं, सोना खरीदते हैं, प्रॉपर्टी में निवेश करते हैं। इन्हीं ज़िम्मादरियों के बीच हमें अपने आशियाने की व्यवस्था भी करनी पड़ती है।
हम घर के लिए, कार के लिए लोन लेते हैं और उनकी ईएमआई का चक्कर शुरू हो जाता है। हम धन के चक्कर में घनचक्कर बनने लगते हैं। हर तरफ से घाघ हम पर टूट पड़ते हैं और हमारी ज़रूरत का फायदा उठाकर हमारा भविष्य नहीं, अपना धंधा चमकाते हैं। यहां वित्तीय मामलों और बाज़ार की स्थिति का दांवपेंच समझने के लिए हमें अलग से पढ़ना होता है। इफरात धन हो तो वित्तीय सलाहकार मिल जाते हैं। यूं तो इनकी भूमिका धन के मामले में शरीर के डॉक्टर जैसी है। लेकिन अपने यहां एक तो ऐसे सलाहकार मिलते नहीं। दूसरे मिलते भी हैं तो नीम हकीम खतरा-ए-जान।
यह सब करते-कराते वो वक्त आने लगता है जब न तो हमारी नौकरी रहेगी और न ही हम शारीरिक व मानसिक रूप से काम करने लायक बचेंगे। तब क्या होगा? हमारा गुजारा कैसे होगा? इसका पुख्ता इंतज़ाम भी समय और सामर्थ्य रहते कर लेना होता है। इसीलिए कहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा 40 साल का होते ही रिटायरमेंट की प्लानिंग शुरू कर देनी चाहिए। नहीं तो फिर चिड़िया चुग गई खेत वाली हालत हो जाती है। आखिर में हमें यह व्यवस्था करनी होती है कि हमारे न रहने पर हमने जो भी अर्जित किया है, कमाकर बचाया है, वह सही उत्तराधिकारी तक पहुंच जाए।
पहले बालपन, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की चार अवस्थाएं बताई गई थीं। लेकिन तब मूलतः मूल्य-सृजन केवल कृषि और व्यापार में होता था। अब ज़माना बदल गया है। उद्योग व सेवा क्षेत्र का ज़माना है। ऐसे में जीवन चक्र के साथ धन का चक्र बदल गया है। इसीलिए हमें धन के मूल को समझते हुए अपने लिए खास धन-चक्र तय करना होता है। उस धन-चक्र का हमारे अपने जीवन-चक्र से मेल खाना बहुत ज़रूरी है।
अंत में थोड़ा कहा, बहुत समझना। चिठ्ठी को तार समझना। तथास्तु...
चिठ्ठी को मार्गदर्शन समझा.
Very great article.