गजब की विडम्बना है। एक तरफ भारत सरकार अपना 96% ऋण देश के आम लोगों की बचत या बैंक डिपॉजिट से हासिल कर रही है, वहीं दूसरी तरफ इन्हीं आम लोगों को घर-खर्च और खपत को पूरा करने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है। रिजर्व बैंक की ताज़ा फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट बताती है कि मार्च 2025 तक भारतीय परिवारों ने जो ऋण ले रखा है, उसका 54.9% हिस्सा घर या जेवरात खरीदने के लिए नहीं, बल्किऔरऔर भी

मार्च 2025 में खत्म वित्त वर्ष 2024-25 में देश का नॉमिनल जीडीपी ₹330.68 लाख करोड़ रहा है। यह 85.65 रुपए प्रति डॉलर की मौजूदा विनिमय दर पर 3.861 ट्रिलियन डॉलर निकलता है। रिजर्व बैंक की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2025 के अंत में देश का विदेशी ऋण 736.3 अरब डॉलर है जो जीडीपी का 19.07% बनता है। वहीं, भारत सरकार पर इस वक्त चढ़ा कुल ऋण ₹181.74 लाख करोड़ है। यूं तो यह जीडीपी का 54.96%औरऔर भी

हमारी 146 करोड़ की आबादी में से 5-6 करोड़ लोगों को छोड़ दें तो बाकी 140 करोड़ बिंदास नहीं, बल्कि अंदर से हारे व भयग्रस्त लोग हैं। उन्हें खुद अपनी ताकत पर भरोसा नहीं। उनमें जीत का अहसास भरने के लिए कभी टीम इंडिया के किसी शुभमन गिल की डबल सेंचुरी चाहिए तो कभी अतीत का महिमागान, विश्वगुरु का बखान या भारत का दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाना और फिर जल्दी ही चौथे औरऔरऔर भी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय दस साल की सबसे लम्बी विदेश यात्रा पर निकले हैं। 2 से 9 जुलाई तक आठ दिन में पांच देशों की यात्रा। मोदी मई 2014 में सत्ता संभालने के बाद अब तक 77 देशों की 90 यात्राएं कर चुके हैं। यह एक रिकॉर्ड हैं। इनमें से हर यात्रा पर लाखों डॉलर खर्च हुए होंगे। इनसे देश को मिला कुछ नहीं, बल्कि कर्ज बढ़ता गया। 2014 में भारत सरकार पर विदेशी व घरेलूऔरऔर भी

भारत के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि जो ऊपर-ऊपर दिख रहा है, वो असल में वैसा है या नहीं, इसका कोई भरोसा या ठिकाना नहीं। सबसे तेज़ी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था, जीडीपी में दुनिया की पांचवीं से चौथी और चंद सालों में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के शोर और धमाकेदार सुर्खियों के झाग के नीचे कोई देखने की जहमत नहीं उठाता कि हमारी टैक्स प्रणाली, सरकारी दखल और न्यायिक से लेकर इन्सॉल्वेंसी जैसीऔरऔर भी

अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि उसकी मुद्रा डॉलर आज भी दुनिया भर की रिजर्व करेंसी बनी हुई है। वहां के वित्तीय बाज़ारों में कुछ हो जाए तो सारी दुनिया हिल जाती है। अमेरिका के ट्रेजरी बॉन्डों पर यील्ड की दर पर दुनिया भर की ब्याज दरें टिकी हुई हैं। जब ऐसे अमेरिका की संप्रभु रेटिंग या साख पर सवाल उठ जाएं तो भारत समेत दुनिया के हर देश को चौकन्ना हो जाने कीऔरऔर भी

इस बार मूडीज़ द्वारा अमेरिका की संप्रभु रेटिंग का गिराया जाना कोई सामान्य बात नहीं है। साल 2011 में स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने रेटिंग तब घटाई, जब अमेरिका ने निर्धारित ऋण की सीमा बुरी तरह तोड़ दी थी। 2023 में फिच ने रेटिंग घटाई, जब कोविड महामारी के चलते अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल मची हुई थी। लेकिन मूडीज़ ने में रेटिंग तब घटाई है, जब अमेरिका में एक साल से अपेक्षाकृत शांति चल रही है। मुद्रास्फीति व बेरोज़गारीऔरऔर भी

मोदी सरकार अब भी शेखी बघारने से बाज नहीं आ रही, जबकि उसके विदेशी निवेश आधारित विकास मॉडल के पैरों तले ज़मीन खिसक चुकी है। रिजर्व बैंक के मुताबिक भारत वित्त वर्ष 2024-25 के दौरान नए प्रोजेक्ट में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को लेकर अमेरिका, ब्रिटेन व फ्रांस के बाद चौथा पसंदीदा देश रहा है। वित्त मंत्रालय इसका ढोल जमकर बजा रहा है। लेकिन जैसे ही हम सकल निवेश के बजाय शुद्ध निवेश पर आते हैं तोऔरऔर भी

यह शेखी बघारने का वक्त नहीं है। अगर हमारे नीति-नियामक भारत के विकास-पथ को लेकर संजीदा नहीं हुए तो हमारी सारी विकासगाथा कायदे से टेक-ऑफ करने से पहले ही मिट्टी में मिल सकती है। हमें चौकन्ना हो जाना चाहिए क्योंकि करीब डेढ़ महीने भर पहले ही 16 मई को रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की संप्रभु रेटिंग एएए के सर्वोच्च स्तर से घटाकर दूसरे पायदान पर एए1 करऔरऔर भी

देश में सबसे भयंकर दुर्दशा डेमोग्राफिक डिविडेंड मानी गई उस युवा आबादी की हो रही है, जिनकी आकांक्षाओं के दम पर भारत की सारी विकासगाथा लिखी गई है। हमारे 60 करोड़ देशवासियों की उम्र 25 साल से कम है। यह वो ताकत है जो देश को आर्थिक महाशक्ति बना सकती है। लेकिन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ताजा ‘इंडिया इम्प्लॉयमेंट रिपोर्ट 2024‘ के मुताबिक भारत की श्रमशक्ति में हर साल जुड़नेवाले 70-80 लाखऔरऔर भी