भारत को गरीब मुल्क होने की दुर्दशा से निकालना है तो बड़े पैमाने पर सार्थक रोज़गार पैदा करने होंगे। इस साल की आर्थिक समीक्षा में बड़ी साफगोई से कहा गया है कि भारत को 2030 तक हर साल कृषि से बाहर 78.5 लाख रोज़गार पैदा करने होंगे। सरकार का ताज़ा आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) जुलाई 2023 से जून 2024 तक की अवधि के लिए किया गया था। इसके मुताबिक कृषि में हमारा 46% श्रमबल लगा हुआ है।औरऔर भी

फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार इस समय ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था का आकार या जीडीपी 3.73 ट्रिलियन डॉलर है। वहीं, हमारे राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) के ताज़ा अनुमान और नए बजट के मुताबिक मार्च 2025 में समाप्त हो रहे वित्त वर्ष 2024-25 में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार या जीडीपी ₹324.11 लाख करोड़ का रहेगा। इसे 86.69 रुपए प्रति डॉलर की विनिमय दर पर निकालें तो यह 3.74 ट्रिलियन डॉलर बनता है। दूसरे शब्दों में अब भी भारत दुनिया कीऔरऔर भी

हमें जीडीपी के विकास दर के झांसे को कायदे से समझना होगा। एक तो यह है कि साल के शुरू में विकास दर का बजट अनुमान होता है, जो तीन तिमाही बाद संशोधित अनुमान तक और फिर साल बीतने पर वास्तविक दर तक पहुंच जाता है। दूसरा यह है कि हमेशा विकास की एक नॉमिनल दर या सतही दर होती है जिसे मौजूदा मूल्यों पर निकाला जाता है। नॉमिनल विकास दर को जब मुद्रास्फीति के असर कोऔरऔर भी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लम्बी-लम्बी फेंकने में माहिर व जगजाहिर हैं तो उनकी सरकार आर्थिक विकास तक में हांकने की उस्ताद बनी हुई है। जब से मोदी सरकार ने देश की सत्ता संभाली है, तब से पेश किए गए 11 बजट में से तीन (2020-21, 2021-22 और 2022-23) को कोरोना महामारी से प्रभावित और एक (2016-17) को अपवाद मानकर छोड़ दें तो बाकी सात में उसने जीडीपी की नॉमिनल विकास दर का जो अनुमान लगाया था, वास्तविक याऔरऔर भी

इस बार की आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2023-24 में वेतनभोगी व स्वरोजगार में लगे पुरुष व महिला, दोनों ही श्रमिकों का असल मासिक वेतन कोरोना महामारी के दो साल पहले के वित्त वर्ष 2017-18 के स्तर से भी कम रहा है। असल स्थिति सतही या नॉमिनल स्थिति से मुद्रास्फीति का असर मिटाकर निकाली जाती है। आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि 2017-18 में पुरुष श्रमिक का असल औसत मासिक वेतन ₹12,665औरऔर भी

इस समय केंद्र में सत्तारूढ़ दल पर जनधन को लूटने की अंधी हवस सवार है। वो बड़े राज्यों ही नहीं, छोटे राज्यों व केंद्र-शासित क्षेत्रों तक में येन-केन प्रकारेण सरकार बनाने में लगी रहती है। जहां धार्मिक ध्रुवीकरण या धांधली व गुंडागर्दी से चुनकर सत्ता में नहीं आती, वहां विधायकों की खरीद-फरोख्त से सरकार बना लेती है। लेकिन उसका यह राजनीतिक चरित्र देश की अर्थनीति के लिए घातक बनता जा रहा है। देश की अर्थव्यवस्था इस समयऔरऔर भी

इस सरकार के चरित्र के दो खास पहलू हैं जो इसके 11 साल के कार्यकाल में दिन के उजाले की तरह साफ हो चुके हैं। एक, यह कॉरपोरेट क्षेत्र और उसमें भी अपने प्रिय चुनिंदा बड़े समूहों का अहित कभी नहीं करेगी। दो, सरकार अपना मनमाना खर्च चलाते रहने के लिए टैक्स संग्रह को कभी घटने नहीं देगी। हालांकि वो आईएमएफ व विश्व बैंक जैसी वैश्विक संस्थाओं को खुश रखने के लिए ऋण पर अंकुश लगा सकतीऔरऔर भी

सरकारें हमेशा यह छिपाने में लगी रहती हैं कि वे जनता की सेवा का नारा देकर असल में किसके लिए काम कर रही हैं। लोकतंत्र में विपक्ष, मीडिया व जागरूक अवाम का काम है कि वो हमेशा सरकार की असलियत उजागर करता रहे। विपक्ष अवसरवादी और मीडिया सरकार की गोद में जा बैठा हो तो सारा का सारा दायित्व जागरूक अवाम पर आ जाता है। सरकार के असली चेहरे व चरित्र को समझने के लिए बजट सेऔरऔर भी

बचपन में मां एक पहेली पूछा करती थी। गुरु गुरुआइन नब्बे चेला, तीन गो रोटी में कैसे होला? हम लोग नहीं बता पाते तो मां बताती कि असल में चेले का नाम ही नब्बे था। इस बार के बजट में वित्त मंत्री नम्मो ताई ने भी कुछ ऐसी ही पहेली पूछ ली है, जिसका कोई जवाब नहीं सूझ रहा। उन्होंने ऐसा प्रावधान किया है जिससे 12 लाख रुपए तक सालाना आय वालों को कोई इनकम टैक्स नहींऔरऔर भी

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को बजट में रोते रुपए और बिलखती अर्थव्यवस्था से जुड़े बहुत सारे सवालों का जवाब देना होगा। वे बताएं कि 1991 में शुरू आर्थिक उदारीकरण के 34 साल बाद भी निजी क्षेत्र हाथ पर हाथ रखकर क्यों बैठा है और विदेशी निवेश 12 साल के न्यूनतम स्तर पर क्यों आ गया है? देश के विकास का दारोमदार अब भी सरकार के रहमोकरम पर क्यों टिका है? वित्त मंत्री यह भी बताएं कि उनकीऔरऔर भी