नरेंद्र मोदी 13 साल गुजरात जैसे औद्योगिक राज्य के मुख्यमंत्री और दस साल भारत जैसी पांच हज़ार साल पुरानी सभ्यता वाले देश के प्रधानमंत्री रहे। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे और प्रचारक ही रह गए। करीब ढाई दशक तक देश के संवैधानिक पदों पर रहने के बावजूद वे हिंदू-मुसलमान और भारत-पाकिस्तान की सोच से बाहर नहीं निकल सके। अमित शाह राजनीति में आने से पहले शेयर ब्रोकर थे। लेकिन दस साल गुजरात के गृहमंत्री औरऔरऔर भी

क्या भारत जैसे कृषिप्रधान देश का विकास किसानों के हितों को अनदेखा करके किया जा सकता है? जवाब है कतई नहीं। लेकिन मोदी सरकार ने तो लगता है कि कॉरपोरेट हितों की रक्षा और किसान-हितों की उपेक्षा को अपना शगल बना लिया है। कॉरपोरेट क्षेत्र चाहता है कि सरकार की नीति में निरतंरता व स्थायित्व बना रहे। यकीनन किसान और कृषि उद्यमी भी यही चाहते हैं। लेकिन मोदी सरकार उनकी एक नहीं सुनती। केंद्रीय कृषि मंत्री नेऔरऔर भी

एक समय देश के वित्तीय क्षेत्र में विदेशी फर्मों की भरमार थी। लेकिन अब भारत के बैंकिंग से लेकर म्यूचुअल फंड और बीमा व्यवसाय से वे किनारा कर रही हैं। विदेशी निवेश के नाम पर केवल पोर्टफोलियो निवेशक बचे है जिनके बारे में यही कहना सही होगा कि गंजेड़ी यार किसके, दम लगाकर खिसके। एफपीआई भारतीय शेयर और ऋण बाज़ार में तात्कालिक मुनाफा कमाने आए हैं, उसकी कोई लम्बी प्रतिबद्धता नहीं है। साल भर पहले सिटी ग्रुपऔरऔर भी

एक तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था की कमज़ोरियां दुनिया के सामने खुलती जा रही है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मूर्खताएं भी जमकर जगजाहिर होने लगी हैं। देश ही नहीं, बाहर भी उनकी जगहंसाई हो रही है। इससे उनसे कहीं ज्यादा भारत की छवि सारी दुनिया में खराब हो रही है। कुछ दिन पहले उन्होंने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पर तंज कसते हुए कहा कि वे अपने राज्य के जिलों की राजधानियों का नाम नहीं बता सकते।औरऔर भी

हम भले ही प्रचार से उपजी धारणाओं से बंधकर स्वीकार न करें कि हमारी अर्थव्यवस्था की चमक फीकी पड़ रही है। लेकिन यह एक ऐसी हकीकत है जिसे अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वियतनाम जैसा छोटा-सा देश हमें निर्यात के मोर्चे पर मात दे रहा है। वियतनाम की आबादी भारत की मात्र 7% है और वहां का जीडीपी भारत का 12% ही है। फिर भी वहां का वस्तु या माल निर्यात भारत के नॉन-ऑयल निर्यात केऔरऔर भी

मोदीराज में अर्थव्यवस्था पर चढ़ाई गई झूठ की कलई अब उतरने लगी है। केंद्र सरकार के झोंको-झोंक पूंजीगत खर्च और पीएलआई जैसे सब्सिडी प्रोत्साहन व कॉरपोरेट टैक्स में रियायत के बावजूद निजी क्षेत्र ठंडा पड़ा है क्योंकि देश के भीतर मांग नहीं बढ़ रही है, जबकि बाहर मंदी जैसे हालात हैं। इसलिए वो पूंजी निवेश नहीं बढ़ा रहा। इसे दर्शानेवाले सकल स्थाई पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) का आंकड़ा बढ़कर भी जीडीपी के 31% तक पहुंचा है जो मनमोहनऔरऔर भी

एक तरफ शेयर बाज़ार बढ़ रहा है, दूसरी तरफ बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है। सीएमआईई के ताज़ा डेटा के मुताबिक अप्रैल में बेरोज़गारी की दर बढ़कर 7.83% हो गई है। यह महीने भर पहले मार्च में 7.60% हुआ करती थी। सबसे ज्यादा 34.5% बेरोजगारी हरियाणा में है, उसके बाद 28.8% राजस्थान, 21.1% बिहार और 15.6% जम्मू-कश्मीर में। बेरोजगारी के साथ ही जिनके पास किसी तरह का रोज़ी-रोजगार है, उनकी आमदनी घट रही तो खपत भी घटती जाऔरऔर भी

पिछले दो लोकसभा चुनावों के ठीक पहले शेयर बाज़ार में तेज़ी का उफान देखा गया था। लेकिन इस बार बाज़ार में हाई-टाइड उतरता दिख रहा है। बीएसई सेंसेक्स 9 अप्रैल को 75124.28 के ऐतिहासिक शिखर पर पहुंच गया। उसके बाद करीब एक महीने में अब तक 2.15% गिर चुका है। इधर अक्सर बाज़ार सुबह खुलता तो है बढ़कर, लेकिन थोड़ी देर या दोपहर बाद मुनाफावसूली उसे नीचे खींच से जाती है। खास बात यह है कि मुनाफाऔरऔर भी

भारतीय समाज में धन-दौलत व संपदा की संरचना बहुत तेज़ी से बदलती जा रही है। 1950-51 में देश की सालाना घरेलू बचत का 91.4% हिस्सा ज़मीन-जायदाद व सोने-चांदी जैसी भौतिक संपदा के रूप में था। 2021-22 तक यह हिस्सा घटते-घटते 38.6% पर आ गया, जबकि बाकी 61.4% घरेलू बचत बैंक डिपॉजिट, शेयर, डिबेंचर व म्यूचुअल फंड में निवेश, लघु बचत, बीमा पॉलिसी और पीएफ व पेंशन फंड के रूप में थी। इस तरह हमारी धन-दौलत का वित्तीयकरणऔरऔर भी

सब कुछ नकली, सब कुछ फर्जी, सब कुछ झूठ। केवल दिखावा और अतिरंजना। हांकने व फेंकने की सारी की सारी सीमाएं पार। छिलके उतारते जाओ तो अंदर से सब खोखला। बाकी बातों पर तो शक व संदेह की गुंजाइश है। लेकिन शायद ही किसी को कोई संदेह हो कि मोदीराज के दस साल में शेयर बाज़ार की तेज़ी ने सबको पीछे छोड़ दिया है। गुजरात के अमित शाह व विजय रूपाणी जैसे शेयर ब्रोकरों की पार्टी कोऔरऔर भी