अडाणी समूह ने हर स्तर पर अपनी फील्डिंग चाक-चौबंद कर दी है। अमेरिकी न्य़ाय विभाग ने उसके ऊपर भारत में 2029 करोड़ रुपए की रिश्वत देने का अभियोग जड़ा है। लेकिन भारत सरकार सीबीआई या ईडी ने इसकी जांच कराने को तैयार नहीं। वह न तो संसद में बहस करने को तैयार है और न ही संयुक्त संसदीय समिति से इसकी जांच कराने को। इस बीच भाजपा से जुड़े दो जानेमाने वकील खुद ही अडाणी को बचानेऔरऔर भी

किसी देशवासी को अगर अब भी लगता है कि मोदी सरकार व्यापक अवाम की आकांक्षाओं को पूरा करने के अभियान में लगी है तो उसे अब इस भ्रम से बाहर निकल आना चाहिए। मोदी सरकार अडाणी जैसे उद्योगपतियों का साम्राज्य बढ़ाने में ही लगी है। इन उद्योगपतियों की सूची में कोयला घोटाले के प्रमुख आरोपी नवीन जिंदल भी शामिल हैं। यह फेहरिस्त ज्यादा लम्बी नहीं। लेकिन यह भारत के कॉरपोरेट क्षेत्र का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इसमें शुद्धऔरऔर भी

सवाल उठता है कि जिस गौतम अडाणी ने ब्रांड इंडिया का सत्यानाश कर दिया है, उसे सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्यों बचाए जा रहे हैं? मोदी ने देश के भीतर ही नहीं, बाहर भी अडाणी को संरक्षण और प्रश्रय दिया। वे जब भी विदेश दौरे पर जाते, अडाणी को ज़रूर साथ ले जाते हैं। इस क्रम में अडाणी समूह ऑस्ट्रेलिया से लेकर ग्रीस, बांग्लादेश, श्रीलंका, केन्या, संयुक्त अरब अमीरात व चीनऔरऔर भी

दस साल पहले तक गौतम अडाणी देश के एक सामान्य उद्योगपति थे। साल 2014 में उनकी नेटवर्थ 44,000 करोड़ रुपए हुआ करती थी। लेकिन साल 2024 तक उनकी नेटवर्थ 11.6 लाख करोड़ रुपए की हो गई। जनवरी 2023 में हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद उनकी दौलत 57% घटकर 4.74 करोड़ रुपए पर आ गई थी। लेकिन अगले साल उनकी दौलत में 95% छलांग लग गई। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक ताजा रिपोर्ट में हिसाब लगाया गया हैऔरऔर भी

देश का मतलब सरकार नहीं होता और न ही किसी व्यक्ति को देश का पर्याय बनाया जा सकता है। अपने यहां महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसी महान हस्तियां हुईं। लेकिन किसी ने खुद को भारत का पर्याय नहीं बताया। कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने 1974 में ‘इंडिया इज़ इंदिरा, इंदिरा इज़ इंडिया’ का नारा दिया था। लेकिन देश ने कभी इसे स्वीकार नहीं किया और इंदिरा गांधीऔरऔर भी

याद रखें कि आप ट्रेडिंग कर रहे हैं, लम्बे समय का निवेश नहीं। फिर भी उन्हीं कंपनियों में ट्रेड करना चाहिए जो फंडामेंटल स्तर पर मजबूत हों। कभी कमज़ोर कंपनियों के स्टॉक्स में ट्रेड न करें। यकीनन, निवेश के लिए दो-तीन साल या ज्यादा का टाइमफ्रेम लेकर चलना पड़ता है। उठना-गिरना शेयर बाज़ार का स्वभाव है। कोरोना का प्रकोप बढ़ा तो बीएसई सेंसेक्स साल 2020 के शुरुआती दो-तीन महीनों में ही 41,000 अंक से गिरते-गिरते 30,000 अंकऔरऔर भी

सरकार विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) के निकलने से परेशान हो गई है। इतनी ज्यादा कि अब उसे डैमेज कंट्रोल में उतरना पड़ रहा है। सबसे पहले उसने रिजर्व बैंक से घोषित करवाया कि एफपीआई चाहें तो किसी कंपनी में 10% से ज्यादा के निवेश को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में बदल सकते हैं। उसका मानना है कि इससे एफपीआई की मुनाफावसूली पर लगाम लग सकती है। फिर सेबी की तरफ से खबर चलवाई गई कि घबराने कीऔरऔर भी

क्या सचमुच भारत की विकासगाथा को कोई आंच नहीं आई है और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) नाहक हमारे शेयर बाज़ार से भागे जा रहे हैं? आज की हकीकत यह है कि पिछले दस सालों में भारत की विकासगाथा अडाणी व अम्बानी जैसे चंद उद्योगपतियों और सरकार से दलाली खा रहे या सत्ताधारी दल को चंदा खिला रहे धंधेबाज़ों तक सिमट कर रह गई है। इस विकासगाथा में देश में सबसे ज्यादा रोज़गार देनेवाले कृषि और मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्रऔरऔर भी

बाज़ार थमने का नाम ही नहीं ले रहा। न जाने कब इस रात की सुबह होगी? यह सवाल आज शेयर बाज़ार के हर निवेशक व ट्रेडर के दिलो-दिमाग में नाच रहा है। हर तरफ घबराहट व अफरातफरी का आलम है। सरकारी अर्थशास्त्री से लेकर शेयर बाज़ार व म्यूचुअल फंड के धंधे में लोग समझाने में लगे हैं कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) का स्वभाव ही संकट में निकल भागने का है। करीब डेढ़ महीने से एफपीआई केऔरऔर भी

चार साल पहले कोरोना में फंसने के बाद जबरदस्त शोर मचा कि चीन से दुनिया के तमाम देश दूरी बना रहे हैं और ‘चाइना प्लस वन’ की नीति अपना रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा भारत को मिलेगा। लगा कि भारत अब दुनिया भर में फैले चीन के निर्यात बाज़ार पर कब्ज़ा कर लेगा। लेकिन यह भी मोदी सरकार के देश के भीतर उछाले गए तमाम जुमलों की ही तरह अंतरराष्ट्रीय सब्ज़बाग व बड़बोलापन साबित हुआ। चीनऔरऔर भी